लोक प्रशासन - A UGC-CARE Listed Journal

Association with Indian Institute of Public Administration

Current Volume: 16 (2024 )

ISSN: 2249-2577

Periodicity: Quarterly

Month(s) of Publication: मार्च, जून, सितंबर और दिसंबर

Subject: Social Science

DOI: https://doi.org/10.32381/LP

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लोक प्रशासन भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की एक सहकर्मी समीक्षा वाली त्रैमासिक शोध पत्रिका है ! यह UGC CARE LIST (Group -1 ) में दर्ज है ! इसके अंतर्गत लोक प्रशासन, सामाजिक विज्ञान, सार्वजनिक निति, शासन, नेतृत्व, पर्यावरण आदि से संबंधित लेख प्रकाशित किये जाते है !

अध्यक्ष
श्री एस. एन. त्रिपाठी

महानिदेशक, आई. आई. पी. ए. 
नई दिल्ली


सम्पादक
डा0 साकेत बिहारी 

आई. आई. पी. ए, नई दिल्ली


सह-सम्पादक
डा0 कृष्ण मुरारी 

दिल्ली विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली


सम्पादक मंडल
श्री के. के. सेठी

अध्यक्ष, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ
 क्षेत्रीय शाखा (आई. आई. पी. ए,)


प्रो. श्रीप्रकाश सिंह

दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली


डा0 शशि भूषण कुमार

सह-आचार्य, मुजफ्फरपुर
बिहार


डा0 अभय प्रसाद सिंह

दिल्ली विश्वविद्यालय
नई दिल्ली 


डा0 रितेश भारद्वाज

दिल्ली विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली


श्री अमिताभ रंजन

कुलपति,आइ.आइ.पी.ए. नई दिल्ली


पाठ संशोधक
स्नहे लता

Volume 16 Issue 1 , (Jan- to Mar-2024)

सम्पादकीय

By: ..

Page No : i-v

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भारत में एफडीआई के लिए  नीतिगत पहलः मेक इन इंडिया के विशेष सन्दर्भ में

By: सोनम

Page No : 1-17

Abstract
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) भारत की आर्थिक वृद्धि के लिए एक प्रमुख उत्प्रेरक है, जो देश के विकासात्मक प्रयासों के लिए एक महत्वपूर्ण गैर-ऋण वित्तीय भंडार बनाता है। अंतर्राष्ट्रीय निगम रणनीतिक रूप से भारत में निवेश करते हैं, कर प्रोत्साहन और अपेक्षाकृत प्रतिस्पर्धी श्रम लागत सहित देश के अद्वितीय निवेश प्रोत्साहनों का लाभ उठाते हैं। यह तकनीकी विशेषज्ञता के अधिग्रहण की सुविधा प्रदान करता है और रोजगार सृजन और विभिन्न सहायक लाभों को बढ़ावा देता है। भारत में इन निवेशों का आगमन सीधे तौर पर सरकार की सक्रिय नीति ढांचे, एक  गतिशील कारोबारी माहौल, वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार और बढ़ते आर्थिक प्रभाव का परिणाम है।
       यह लेख भारतीय अर्थव्यवस्था में एफडीआई के महत्व पर चर्चा करता है, यह एफडीआई को आकर्षित करने के लिए उठाए गए हालिया उपायों पर भी प्रकाश डालता है, मुख्य रूप से मेक इन इंडिया अभियान पर ध्यान केंद्रित करता है। इस अभियान की सफलता की राह में आने वाली कुछ बाधाओं पर भी चर्चा की गई है।

Author :
डाॅ. सोनम :
वाणिज्य विभाग, शहीद भगत सिंह, सांध्य महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.1

Price: 251

भारत के चुनाव आयोग की बदलती भूमिकाः मुद्दे और चुनौतियां

By: अनिल कुमार

Page No : 18-33

Abstract
भारत के संविधान द्वारा स्थापित एक स्थायी और स्वतंत्र निकाय भारत निर्वाचन आयोग को देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने के नाते, संसद और राज्य विधानसभाओं के आम चुनाव कराना भारत के चुनाव आयोग के लिए सहज काम नहीं है। हर चुनाव में एक खामी रह जाती है जो भारत के चुनाव आयोग को कुशल बनने और जनता की नजरों में एक बेदाग छवि बनाने में बाधा डालती है। चुनावों में विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जैसे बुनियादी ढांचे, वित्त, कर्मियों, नागरिकों और  मतदाताओं के बीच जागरूकता की कमी, केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के साथ समन्वय, राजनीतिक दबाव, नामांकन दाखिल करना, धन और बाहुबल का दुरुपयोग, खर्च की सीमा, फंडिंग पैटर्न से संबंधित कई मुद्दे, राजनीति के अपराधीकरण की जाँच, चुनावी धोखाधड़ी, स्वच्छ मतदाता सूची तैयार करना, मतदाता सूची का दोहराव और भारत के चुनाव आयोग की रिपोर्ट का विश्लेषण आदि। भारत के चुनाव आयोग की पारंपरिक भूमिका और कार्य समय की आवश्यकता और प्रगति के अनुसार बदलते रहे हैं। भारत के चुनाव आयोग ने चुनावों में कदाचार की जाँच के लिए विभिन्न तरीकों से आवश्यक कदम उठाए हैं। यह पत्र आयोग की वास्तविक स्थितियों और समस्याओं को जानने का प्रयास करता है और भारत के चुनाव आयोग के सामने आने वाले मुद्दों, समस्याओं और चुनौतियों का विस्तृत अध्ययन करता है। अध्ययन भारत के चुनाव आयोग की रिपोर्ट और कुछ प्रकाशित लेखों के माध्यम से किया गया है।

Author :
डाॅ अनिल कुमार :
सहायक आचार्य लोकप्रसासन विभाग, सी. डी. ओ. ई. एजुकेशन, पंजाब विश्वविधालय, चंडीगढ़।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.2

Price: 251

भारतीय न्यायपालिका पर मीडिया ट्रायल का प्रभावः आलोचनात्मक विश्लेषण

By: आशुतोष मीणा

Page No : 34-44

Abstract
निष्पक्ष न्याय के लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता आवश्यक है। भारतीय संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान है। न्यायपालिका की कार्यवाही में विधायिका व कार्यपालिका का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए ताकि न्यायपालिका निष्पक्ष निर्णय कर सके। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता के आधार पर मीडिया समाचारों की रिपोर्टिंग करता है। मीडिया द्वारा अदालतों में विचाराधीन मामलों की सनसनीखेज रिर्पोटिंग कर दी जाती है जिससे न्यायपालिका के पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने व न्यायिक निर्णय प्रभावित होने की संभावना रहती है। हाई प्रोफाइल मामलों में मीडिया द्वारा अनवरत रिपोर्टिंग से मामले को इतना प्रचारित कर दिया जाता है कि न्यायधीश कोर्ट में प्रस्तुत तथ्यों व सबूतों से इतर अलग धारणा बना सकते हैं। मीडिया द्वारा बनाए गए माहौल से न्यायधीश की निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है। मीडिया ट्रायल न्यायधीश को आरोपी के खिलाफ फैसला सुनाने के लिए मजबूर कर सकती है, भले ही आरोपी निर्दोष हो। यह शोध पत्र इस बात पर केंद्रित है कि मीडिया ट्रायल आरोपी के निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को कैसे प्रभावित करती है। शोध पत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता और निष्पक्ष सुनवाई के बीच टकराव पर प्रकाश डाला गया है।

Author :
डाॅ. आशुतोष मीणा :
एसोसिएट प्रोफेसर, लोकप्रशासन, राजकीय महाविद्यालय नांगल राजावतान (दौसा)।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.3

Price: 251

वैकल्पिक विवाद निपटान व्यवस्था

By: लुके कुमारी

Page No : 45-61

Abstract
भारतीय न्यायिक व्यवस्था मूल रूप से अंग्रेजी न्यायिक संहिता पर आधारित है। जिसे हम भारतीय आपराधिक दंड संहिता तथा भारतीय नागरिक संहिता के मध्य विभाजित कर सकते हैं आपराधिक दंड संहिता के दो हिस्से हैं। प्रथम, तात्विक न्याय तथा प्रक्रियात्मक न्याय। इन्हीं के मध्यनजर भारत में विवादों के समाधान की प्रक्रिया को पूरा किया जाता है। हम जानते हैं कि भारत जैसे विकासशील देश में न्यायाधीशों और न्यायालयों की कम संख्या न्याय प्राप्ति की प्रक्रिया को बाधित करती है। न्याय की मूल माँग है कि उचित समय में व्यक्ती को उसका हक प्राप्त हो सके। वैकल्पिक विवाद निपटान व्यवस्था भारतीय न्याय प्रणाली को वह आधार प्रदान करती है जिससे कि न्याय की पहुँच पंक्ति में खड़े सबसे अंतिम व्यक्ति को भी प्राप्त हो सके।

Author :
लुके कुमारी :
 सहायक प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, भारती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.4

Price: 251

भारत में जल अभिशासनः सैद्धांतिक और क़ानूनी पृष्ठभूमि

By: विकास कुमार

Page No : 62-74

Abstract
इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ तक यह स्पष्ट हो गया कि दुनिया जल संकट की अवस्था से गुजर रहा है जिसका असर आम-आदमी सहित सरकारों के काम-काज पर भी समान रूप से दिखाई देने लगा है। लेकिन इस समस्या की प्रमाणिकता को लेकर आम चर्चा और बहस 1970 के दशक के बाद से प्रारंभ हुई। इस बहस ने इस बात को स्थापित किया कि दुनिया की एक बड़ी आबादी के पास स्वास्थ्य और सम्मानजनक जीवन जीने के लिए पर्याप्त मात्रा में पीने योग्य जल उपलब्ध नहीं है जो एक तरह से आम जनमानस और सरकारों के लिये संकट का उद्घोष है। देश-दुनिया में इसके कारणों को लेकर छिड़ी बहस से मुख्यतौर पर दो तरह के विश्लेषण उभर कर सामने आए। पहला, ‘माल्थुसियन प्रभाव’, जो संसाधनों की कमी, जनसंख्या का दबाव और सीमित विकास के संदर्भ में था। लेकिन दो दशक बाद ही जल संकट को लेकर दूसरा विश्लेषण मुख्य धारा में स्थापित हो गया जिसका मानना था कि विश्व में जल संकट की समस्या से जूझ रहे अधिकांश क्षेत्र राजनीति, गरीबी और पानी के प्रबंधन और उसके असमान आवंटन का परिणाम हैं। संक्षेप में, यह माना गया की मूल रूप से जल संकट दोषपूर्ण ‘अभिशासन’ का परिणाम है। इसकी पुष्टि सन् 2000 में प्रकाशित 'वल्र्ड वाटर काउंसिल’ की रिपोर्ट विस्तृत रूप से करती है जिसमें मुख्य रूप से इस बात पर ज़ोर दिया गया कि ‘जल संकट’ उसके प्रबंधन पद्धति का परिणाम हैं और इससे वर्तमान समय में दुनिया के अरबों लोग और पर्यावरण बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। प्रस्तुत पत्र भारत में जल अभिशासन से सबंधित बनाए गए कानूनों और उसके सैद्धांतिक विमर्श पर प्रकाश डालता है। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों  के स्वरूप और उसके प्रभावों का विश्लेषण भी प्रस्तुत करता है। 

Author :
विकास कुमार :
राजनीति विज्ञान विभाग, दीनदयाल उपाध्याय महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय।

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.5

Price: 251

जनसांख्यिकीय लाभांशः आत्मनिर्भर भारत की दिशा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के दिशा निर्देश

By: मयंक भारद्वाज , आशीष रंजन , ज्योति शर्मा

Page No : 75-88

Abstract
भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी (12 मई, 2020) ने ‘‘आत्मनिर्भर भारत‘‘ के लिए आह्वान किया, जिसमें इसके पांच स्तंभों में से एक स्तंभ के रूप में जीवंत जनसांख्यिकी के महत्व पर जोर दिया गया। भारत वर्तमान में एक युवा आबादी से संपन्न देश है, जिसके नागरिक नवीन विचारों और उद्यमशीलता की भावना से ओत-प्रोत है। भारत अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ उठाने के लिए आश्वस्त है। आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2022 में, 65 प्रतिशत से अधिक आबादी की आयु 35 वर्ष से कम है, और आधे से अधिक आबादी 15-59 वर्ष के कामकाजी आयु वर्ग में आते हैं। यह जनसांख्यिकीय लाभ एक बहुमूल्य कार्यबल प्रदान करता है जो भारत के आर्थिक विकास में निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है। हालांकि, इन लाभों को अधिकतम करने हेतु, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, कौशल विकास और आलोचनात्मक सोच क्षमताओं को सुनिश्चित करने के लिए कुशल संरचनाओं और तंत्रों को स्थापित करना आवश्यक है। भारत ने अमृतकाल में कदम रखा है, जो हमारे युवाओं के लिए अपनी क्षमताओं का लाभ उठाने और भारत को विकसित राष्ट्र में बदलने का एक सुनहरा अवसर है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम प्रगति के रास्ते में युवाओं के सामने आने वाली सभी बाधाओं को दूर करने का प्रयास करें। अवसरों के साथ रचनात्मकता आत्मनिर्भरता की दिशा में प्रयासों को तेज करने के लिए एक आदर्श मंच प्रदान करेगी। 
Authors :
श्री मयंक शर्मा :
शोध छात्र, शिक्षा विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
प्रो. आशीष रंजन : आचार्य, शिक्षा विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
प्रो. ज्योति शर्मा : आचार्य, कलस्टर इनोवेशन सेन्टर, शिक्षा विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.6

Price: 251

भारत में शिक्षा क्षेत्र में नीतियों और उपलब्धियों का आकलन

By: प्रवीण कुमार झा , विनायक राय , संगीता

Page No : 89-101

Abstract
आज सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि “हमारी आबादी के बड़े हिस्से को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आवश्यक सार्वजनिक सेवाएं एवं सुविधाएं कैसे प्रदान की जाएं जो वर्तमान में इन सेवाओं से वंचित हैं।” शिक्षा वह महत्वपूर्ण कारक है जो गरीबों को विकास प्रक्रिया में भाग लेने के लिए सशक्त बनाने की क्षमता रखती है। यह स्पष्ट है क्योंकि शिक्षा ही विकास-सुधार का मूल निर्धारक कारक है। यह, एक ओर, मानव क्षमता को विकसित करने में मदद करता है, दूसरी ओर सक्षम लोगों को विकसित करने में मदद करता है। आज नागरिकों को राष्ट्र के विकास के कार्य में सक्रिय भूमिका निभानी होगी। सरकार इन मापदंडों के तहत स्थितियों को ऊपर उठाने के लिए नई और अभिनव योजनाएं बना रही है और संसाधनों का आवंटन कर रही है लेकिन क्या वह लक्ष्य हासिल करने में सफल रही है? आज क्या हम वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए स्वयं को विकसित कह सकते हैं? देश में कुछ हद तक आर्थिक और सामाजिक प्रगति तो हुई है लेकिन क्षेत्रवार, जातिगत और लिंगवार में समान रूप से प्रगति नहीं हुई है। इस लेख का उद्देश्य शिक्षा के क्षेत्र में बनाई गई नीतियों और उनके कार्यान्वयन का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना है ताकि इसकी सीमित सफलता के कारण और भविष्य में हमारे बेहतर स्थिति (अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकासात्मक पैमाने पर) के लिए प्रयोग किए जा सकने वाले विकल्पों का पता लगाया जा सके।

Authors :
 प्रो. (डाॅ.) प्रवीण कुमार झा :
प्रोफेसर, राजनीतिक विभाग, शहीद भगत सिंह काॅलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
श्री विनायक राय : एम काॅम, दिल्ली विश्वविद्यालय।
प्रो. (डाॅ.) संगीता, प्रोफेसर : राजनीतिक विभाग, शहीद भगत सिंह काॅलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.7

Price: 251

डॉ. अम्बेडकर की समावेशी समाज की संकल्पना: एक विश्लेषण

By: विजय शंकर चौधरी , देवेंद्र मौर्य

Page No : 102-114

Abstract
भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का राजनीतिक और आर्थिक प्रणाली को लेकर एक समावेशी दृष्टिकोण था, जो समाज के प्रत्येक वर्ग को इसके अंतर्गत शामिल करने एवं सशक्त करने पर जोर देता है। उनका मानना था कि राजनीतिक और आर्थिक लोकतंत्र आदर्श समाज के दो अनिवार्य घटक हैं, और दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। उनका दृढ़ मत था कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अपने उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पायेगी। डॉ. अम्बेडकर एक ऐसी राजनीतिक प्रणाली में विश्वास करते थे जहाँ प्रत्येक नागरिक के पास अपने देश में निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने और योगदान करने के समान अवसर उपलब्ध हों। उन्होंने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के महत्व पर जोर दिया, जो यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक नागरिक को अपनी जाति, नस्ल, लिंग या आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना स्वतंत्र मतदान करने का अधिकार हो। समाज के वंचित तबको को निर्णय लेने की प्रक्रिया में प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की वकालत की। डॉ. अम्बेडकर एक ऐसी आर्थिक प्रणाली के समर्थक थे जो संपत्तियों और संसाधनों के समान वितरण की व्यवस्था समाज के सभी वर्गों के लिए सुनिश्चित करती है। उनका मानना था कि संसाधनों और उत्पादन के साधनों तक पहुँच सामाजिक या आर्थिक स्थिति के बजाय योग्यता पर आधारित होनी चाहिए। उन्होंने पूँजीपतियों के विकल्प के रूप में सहकारी समितियों के गठन की भी वकालत  की, जिससे कामगारों को  उत्पादन उपकरण और मशीनरी प्राप्त करने में सुगमता हो सके और साथ ही निर्णय लेने की प्रक्रिया में वे अपनी बात रख सके । अगर हम वर्तमान में देखे तो डॉ बी. आर. अम्बेडकर  जिस राजनीतिक लोकतन्त्र  की बात कर रहे थे उसे हमारे सविंधान में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और चुनाव लड़ने की अनुमति प्रदान कर उसको  प्राप्त करने की कोशिश की गई है और निर्णय लेने की प्रक्रिया में समाज के वंचित तबकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए लोकसभा, विधानसभा एवं स्थानीय स्वशासन के स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था प्रदान की र्गइ  है । अगर आर्थिक समानता की  देखें तो जिस तरह से देश में सम्पतियों का असमान वितरण हो रहा है और चुनावी प्रक्रिया में पूंजी का दखल बढ़ रहा है, वह कहीं न कहीं अम्बेडकर के राजनीतिक और आर्थिक समता पर आधारित लोकतांत्रिक एवं समतामूलक समाज की स्थापना के लिए एक चुनौती उत्पन्न कर रही है ।
           प्रस्तुत आलेख डॉ. अम्बेडकर के राजनैतिक और आर्थिक समावेशी समाज के परिप्रेक्ष्य और संदर्भो पर आधारित चिंतन को व्याख्यायित करता है ।

Authors :
विजय शंकर चौधरी : 
शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी (बिहार)।
देवेंद्र मौर्य :  शोधार्थी, गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)।
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DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.8

Price: 251

राजस्थान में ग्रामीण पर्यटन के माध्यम से समावेशी सामाज का दर्शन

By: शिव कुमार मीणा

Page No : 115-126

Abstract
राजस्थान के ग्रामीण परिवेश में ग्रामीण पर्यटन अपेक्षाकृत एक नया पक्ष है। राजस्थान में ग्रामीण पर्यटन समावेशी समाज का महत्वपूर्ण औजार बना है। ‘‘राज्य में विभिन्न जातीय संघटन व सांस्कृतिक स्वरूपों के समूह है। यहाँ भील, मीणा, डामोर, गरासिया जनजातियाँ विद्यमान है।’’ (भार्गव, 2011, 101) यह जनजातियाँ मुख्य रूप से बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, प्रतापगढ़, सिरोही व बरन जिलों में स्थापित है। इन जनजातियों का विकास करना अति महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सामाजिक व दैनिक जीवनचर्या से बिल्कुल कटे हुए है। ग्रामीण पर्यटन के माध्यम से इनके सामाजिक व आर्थिक स्तर को उठाया जा सकता है। यह जनजातीय लोग ग्रामीण पर्यटन के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से संपर्क में आएंगे, जिससे उनके सोचने समझने के दायरे में विस्तार होगा। आज विश्व के लोग इन जनजातियों के भोजन, सांस्कृतिक, वेशभूषा, हस्तशिल्प, त्यौहार आदि के प्रति आकर्षित हो रहे है। इससे ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा मिलता है, वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण जनजातीय लोगों का विकास होता है। इन जनजातियों के बीच ग्रामीण पर्यटन को लेकर रूचि बढे़ और वह इसमें भाग लें। इसके लिए सरकार व स्वयं सेवी संगठनों को बड़ी भूमिका निभानी चाहिए, ताकि जनजातीय लोगों को अपने जीवन स्तर को ऊपर उठाने में सहायता मिलें। इस शोध में ग्रामीण पर्यटन द्वारा राजस्थान के ग्रामीण समावेश पर चर्चा की गई है। यह अध्ययन पुस्तकों, जर्नल, रिपोर्ट व जनगणना 2011 आदि से प्राप्त आंकड़ों पर आधारित है। 

Author:
शिव कुमार मीणा :
पी.एच.डी. शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय। 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.9

Price: 251

सहकारिता और शिक्षा का समन्वयः युवाओं और शैक्षणिक संस्थानों के संदर्भ में

By: मल्लिका कुमार

Page No : 127-143

Abstract
इस शोध पत्रिका में शिक्षा के संदर्भ में सहकारिता के मूल्यांकन को प्रस्तुत किया है। इसमें वर्तमान में बेरोजगारी एवं असमानता की चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ यह भी बताया गया है कि किस तरह ये सहकारी समितियाँ एक जन-केंद्रित ढाँचे (मॉडल) के रूप में उन चुनौतियों का सामना करने में मदद कर सकती हैं। सहकारिता का अर्थव्यवस्था के विकास में विशेष योगदान है। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र ने दूसरी बार वर्ष 2025 को अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता वर्ष घोषित किया है। सहकारिता से समृद्धि के लिए, भारत में जुलाई 2021 में सहकारिता मंत्रालय की स्थापना की गई। अब पाठ्îक्रम में भी सहकारी शिक्षा को एकीकृत करने और युवाओं को सहकारिता के प्रति जागरूक करने का सुझाव दिया गया है। और यह विश्वास जताया है कि शिक्षकों, संस्थानों, युवाओं और समुदायों के सहयोग से सहकारिता द्वारा देश का समावेशी और सतत् विकास होगा।

Author :
डॉ. मल्लिका कुमार :
उपाध्यक्ष, शिक्षण संस्थानों में सहकारिता, अंतर्राष्ट्रीय सहकारी संघ (ICA-AP) समिति, सह-प्राध्यापिका, एसोसिएट प्रोफेसर, श्री राम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2024.16.01.10

Price: 251

Instruction to the Author

आलेख में सामग्री को इस क्रम में व्यवस्थित करेंः आलेख के शीर्षक, लेखकों के नाम, पते और ई-मेल, लेखकों का परिचय, सार संक्षेप, (abstract) संकेत शब्द, परिचर्चा, निष्कर्ष/सारांश, आभार (यदि आवश्यक हो तो) और संदर्भ सूची । 

सारसंक्षेपः सारसंक्षेप (abstract) में लगभग 100-150 शब्द होने चाहिए, तथा इसमें आलेख के मुख्य तर्को का संक्षिप्त ब्यौरा हो। साथ ही 4-6 मुख्य शब्द (Keywords) भी चिन्हित करें । 

आलेख का पाठः आलेख 4000-6000 शब्दों से अधिक न हो, जिसमें सारणी, ग्राफ भी सम्मिलित हैं। 

टाइपः कृपया अपना आलेख टाइप करके वर्ड और पीडीएफ दोनों ही फॉर्मेट में भेजे । टाइप के लिए हिंदी यूनिकोड का इस्तेमाल करें, अगर आपने हिंदी के किसी विशेष फ़ॉन्ट का इस्तेमाल किया हो तो फ़ॉन्ट भी साथ भेजे, इससे गलतियों की सम्भावना कम होगी, हस्तलिखित आलेख स्वीकार नहीं किए जाएंगे। 

अंकः सभी अंक रोमन टाइपफेस में लिखे। 1-9 तक के अंको को शब्दों में लिखें, बशर्ते कि वे किसी खास परिमाण को न सूचित करते हो जैसे 2 प्रतिशत या 2 किलोमीटर। 

टेबुल और ग्राफः टेबुल के लिए वर्ड में टेबुल बनाने की दी गई सुविधा का इस्तेमाल करें या उसे excel में बनाएं। हर ग्राफ की मूल एक्सेल कॉपी या जिस सॉफ़्टवेयर मैं उसे तैयार किया गया हो उसकी मूल प्रति अवश्य भेजे  सभी टेबुल और ग्राफ को एक स्पष्ट संख्या और शीर्षक दें। आलेख के मूल पाठ में टेबुल और ग्राफ की संख्या का समुचित जगह पर उल्लेख (जैसे देखें टेबुल 1 या ग्राफ 1) अवश्य करें। 

चित्राः सभी चित्र का रिजोलुशन कम से कम 300 डीपीआई/1500 पिक्सेल होना चाहिए। अगर उसे कही और से लिया गया हो तो जरूरी अनुमति लेने की जिम्मेदारी लेखक की होगी।

वर्तनीः किसी भी वर्तनी के लिए पहली और प्रमुख बात है एकरूपता। एक ही शब्द को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से नहीं लिखा जाना चाहिए। इसमें प्रचलन और तकनीकी सुविधा दोनों का ही ध्यान रखा जाना चाहिए।

• नासिक उच्चारण वाले शब्दों में आधा न् या म् की जगह बिंदी/अनुस्वार का प्रयोग करें। उदाहरणार्थ, संबंध के बजाय संबंध, सम्पूर्ण की जगह संपूर्ण लिखें। 

• अनुनासिक उच्चारण वाले शब्दों में चन्द्रबिन्दु का प्रयोग करें। मसलन, वहाँ, आये , जाएंगे, महिलाएं, आदि-आदि। कई बार सिर्फ बिंदी के इस्तेमाल से अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए इसका विशेष ध्यान रखें, उदाहरण के लिए हंस और हँस। 

• जहाँ संयुक्ताक्षरों मौजूद हों और प्रचलन में हों वहाँ उन संयुक्ताक्षरों का भरसक प्रयोग करें। 

• महत्व और तत्व ही लिखें, महत्व या तत्व नहीं। 

• जिस अक्षर के लिए हिंदी वर्णमाला में अलग अक्षर मौजूद हो, उसी अक्षर का प्रयोग करें। उदाहरण के लिए, गए गयी की जगह गए, गई लिखें। 

• कई मामलों में दो शब्दों को पढ़ते समय मिलाकर पढ़ा जाता है उन्हें एक शब्द के रूप् में ही लिखें। उदाहरण के लिए, घरवाली, अखबारवाला, सब्जीवाली, गाँववाले, खासकर, इत्यादि। 

• पर कई बार दो शब्दों को मिलाकर पढ़ते के बावजूद उन्हें जोड़ने के लिए हाइफन का प्रयोग होता है। खासकर सा या सी और जैसा या जैसी के मामले में। उदाहरण के लिए,एक-सा, बहुत-सी, भारत-जैसा, गांधी-जैसी, इत्यादि। 

• अरबी या फारसी से लिए गए शब्दों में जहाँ मूल भाषा में नुक्ते का इस्तेमाल होता है। वहाँ नुक्ता जरूर लगाएं। ध्यान रहें कि क, ख, ग, ज, फ वाले शब्दों में नुक्ते का इस्तेमाल होताहै। मसलन, कलम, कानून, खत, ख्वाब, खैर, गलत, गैर इलरजत, इजाफा, फर्ज, सिर्फ। 

उद्धरणः पाठ के अंदर उद्धृत वाक्यांशों को दोहरे उद्धरण चिह्न (’ ’) के अंदर दें। अगर उद्धृत अंश दो-तीन वाक्यों से ज्यादा लंबा  हो तो उसे अलग पैरा में दें। ऐसा उद्धृत पैराग्राफ अलग नजर आए इसके लिए उसके पहले बाद में एक लाइन का स्पेस दें और पूरा पैरा को इंडेंट करें और उसके टाइप साईज को छोटा रखें। उद्धृत अंश में लेखन की शैली और वर्तनी में कोई तबदीली या सुधार न करें । 

पादटिप्पणी और हवाला (साईटेशन):  सभी पादटिप्प्णियाँ और हवालों (साईटेशन) के लिए मूल पाठ में 1,2,3,4,..... सिलसिलेवार संख्या दे और आलेख के अंत में क्रम में दे। वेबसाईट के मामले में उस तारीख का भी जिक्र करे जब अपने उसे देखा हो। मसलन, पाठ 1, मनोरंजन महंती, 2002, पृष्ठ और हर हवाला के लिए पूरा संदर्भ आलेख के अंत में दें।

सन्दर्भ: इस सूची में किसी भी संदर्भ का अनुवाद करके न लिखें, अथार्थ संदर्भो को उनकी मूल भाषा में रहने दें। यदि संदर्भ हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं के हो तो पहले हिन्दी वाले संदर्भ लिखें तथा इन्हें हिन्दी वर्णमाला के अनुसार, और बाद में अंग्रेजी वाले संदर्भ को अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार सूचीबद्ध करें । 

•ए.पी.ए. स्टाइल फोलो करें। 

•मौलिकताः ध्यान रखें कि आलेख किसी अन्य जगह पहले प्रकाशित नहीं हुआ हो तथा न ही अन्य भाषा में प्रकाशित आलेख का अनुवाद हो। यानी आपका आलेख मौलिक रूप से लिखा गया हो। 

•कोशिश होगी कि इसमें शामिल ज्यादातर आलेख मूल रूप से हिंदी में लिखे गए हो । लेखकों से अपेक्षा होगी कि वे दूसरे किसी लेखक के विचारों और रचनाओं का सम्मान करते हुए ऐसे हर उद्धरण के लिए समुचित हवाला/संदर्भ देंगे ।अकादमिक जगत के भीतर बिना हवाला दिए नकल या दूसरों के लेखन और विचारों को अपना बताने (प्लेजियरिज्म) की बढ़ती प्रवृत्ति देखते हुए लेखकों का इस बारे मे विशेष ध्यान देना होगा । 

•समीक्षा और स्वीकृतिः प्रकाशन के लिए भेजी गयी रचनाओं पर अंतिम निर्णय लेने के पहले संपादक मडंल दो समीक्षकों की राय लेगा, अगर समीक्षक आलेख मे सुधार की माँग करें तो लेखक को उन पर गौर करना होगा।

•संपादन व सुधार का अंतिम अधिकार संपादकगण के पास सुरक्षित हैं। 

•कापीराइटः प्रकाशन का कापीराइट लेखक के पास ही रहेगा पर हर रूप में उसका प्रकाशन का अधिकार आई आई पी ए के पास होगा। वे अपने प्रकाशित आलेख का उपयोग अपनी लिखी किताब या खुद संपादित किताब मे आभार और पूरे संदर्भ के साथ कर सकते हैं। किसी दूसरे द्वारा संपादित किताब में शामिल करने की स्वीकृति देने के पहले उन्हें आई आई पी ए से अनुमति लेनी होगी।
 

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