लोक प्रशासन - A UGC-CARE Listed Journal

Association with Indian Institute of Public Administration

Current Volume: 16 (2024 )

ISSN: 2249-2577

Periodicity: Quarterly

Month(s) of Publication: मार्च, जून, सितंबर और दिसंबर

Subject: Social Science

DOI: https://doi.org/10.32381/LP

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इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के सापेक्ष भारत में विलंबित न्याय और मानवाधिकार की समीक्षा

By : निशांत यादव

Page No: 132-147

Abstract
किसी भी समाज में शांति, सुरक्षा एवं सह-अस्तित्व बनाये रखने के लिए न्याय व्यवस्था का द्रुतगामी होना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है परन्तु यदि भारतीय सन्दर्भ में बात करें तो यहाँ न्याय तक पहुँच बहुत ही जटिल व श्रम साध्य कार्य है। भारत में  यदि विचाराधीन कैदियों के परिप्रेक्ष्य में न्याय तक पहुँच या त्वरित न्याय की जाँच-पड़ताल की जाए तो यह दृष्टिगत होता है कि यहाँ स्थिति पहले से ही ऐसी रही है कि मामूली अपराध के लिए भी व्यक्तियों को न्यायालय के आदेश के इंतज़ार में लम्बी अवधि तक विचाराधीन कैदी के रूप में जेलों में रहना पड़ा है। जिन्हे जमानत मिली, उन्हें भी अदालत के सालां-े साल चक्कर काटने पड़े और जो लोग न्याय पाने के लिए अदालत की शरण लेते हैं उन्हें भी न्याय के लिए कई साल तक इंतजार करना पड़ता है। उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई  करते हुए कहा था, यदि मुकदमे समय पर खत्म नहीं होते, तो व्यक्ति पर जो अन्याय हुआ है, वह अथाह है । इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2022 के आँकडो से इस हालात को और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। भारत की जेलों में बंद केवल 22 प्रतिशत लागे ही सजायाफ़्ता मुजरिम हैं, 77.10 प्रतिशत बंदी विचाराधीन हैं। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2022 ने यह दावा कर बताया कि साल 2010 के मुक़ाबले 2021 तक विचाराधीन बंदियों की संख्या 2.4 लाख से बढ़कर 4.3 लाख पहुँच चुकी है, यानी करीब दोगुनी हो चुकी है। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय और पुदुचेरी को छोड़कर हर राज्य/केंद्र शासित प्रदेश में विचाराधीन क़ैदी बढ़े। प्रस्तुत लेख विचाराधीन बंदियों की इस समस्या को इंडिया जस्टिस रिपोर्ट  के सापेक्ष रखकर मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश करता है। 

Author :
डॉ. निशातं यादव : राजा बलवतं सिंह महाविद्यालय, आगरा में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं।
 

DOI: https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.9

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