लोक प्रशासन - A UGC-CARE Listed Journal

Association with Indian Institute of Public Administration

Current Volume: 17 (2025 )

ISSN: 2249-2577

Periodicity: Quarterly

Month(s) of Publication: मार्च, जून, सितंबर और दिसंबर

Subject: Social Science

DOI: https://doi.org/10.32381/LP

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लोक प्रशासन भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की एक सहकर्मी समीक्षा वाली त्रैमासिक शोध पत्रिका है ! यह UGC CARE LIST (Group -1 ) में दर्ज है ! इसके अंतर्गत लोक प्रशासन, सामाजिक विज्ञान, सार्वजनिक निति, शासन, नेतृत्व, पर्यावरण आदि से संबंधित लेख प्रकाशित किये जाते है !

EBSCO

अध्यक्ष एवं सम्पादक
श्री एस. एन. त्रिपाठी

महानिदेशक, आई. आई. पी. ए. 
नई दिल्ली


सह-सम्पादक
सपना चड्डा

सह-आचार्या, संवैधानिक तथा प्रशासनिक कानून,
भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली 


सम्पादक मंडल
के.के. सेठी

अध्यक्ष, मध्यप्रदेश क्षेत्रीय शाखा (भारतीय लोक प्रशासन संस्थान) 


डा0 शशि भूषण कुमार

 आचार्य, हाजीपुर, बिहार 


प्रो. श्रीप्रकाश सिंह

आचार्य, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली 


शुभा सर्मा

भा. प्र.से., प्रमुख सचिव, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, ओडिशा सरकार 


डा0 साकेत बिहारी 

 सह-आचार्य, विकास अध्ययन, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली


श्री अमिताभ रंजन

कुलसचिव, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली 


पाठ सम्पादक
स्नेहलता

 भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली


Volume 17 Issue 1 , (Jan-2025 to Mar-2025)

सम्पादकीय

By: प्रो. अशोक विशनदास

Page No : v-viii

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सतत् विकास एवं भारतीय ज्ञान प्रणाली: एक वैचारिक दृष्टिकोण

By: उर्मिल वत्स , लवी वत्स

Page No : 1-8

Abstract
विकसित भारत 2047 का विजन, विकसित देश के स्थायी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक रोडमैप का प्रतिनिधित्व करता है। इस अध्ययन का उद्देश्य भारतीय संस्कृति की समृद्ध क्षमता को उजागर करना है। इसका दृष्टिकोण सामाजिक, आर्थिक,पर्यावरणीय और तकनीकी प्रगति को शामिल करना है। भारतीय ज्ञान प्रणाली उन लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करती है, जो समय के साथ-साथ उन्नत दर्शन, विषयों और प्रथाओं की कई श्रेणियों को बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है। विभिन्न विषय- क्षेत्र ज्ञान प्रणाली के इर्द-गिर्द घूमते हैं, जैसे खगोल विज्ञान, चिकित्सा, दर्शन, कला और साहित्य। भारतीय ज्ञान प्रणाली नैतिकता, जीवन और ब्रह्मांड पर अभूतपूर्व क्षमता प्रदान करती है आयुर्वेद चिकित्सा में जैविक निवारक इलाज, उचित आहार, हर्बल संसाधनों और स्वस्थ जीवन शैली के माध्यम से हृदय, मन और शरीर के बीच एक अच्छा तालमेल है। योग के माध्यम से यह पूरे शरीर और आत्म-साक्षात्कार को एकजुट करने की भावना है। आर्यभट्ट जैसे भारतीय यांत्रिकी ने खगोलीय घटनाओं को समझने में प्रमुख योगदान दिया है। इस प्रणाली ने एक संस्कृत संरचना और भाषाई समझ को विकसित किया है। भारतीय पारंपरिक संस्कृति बहुत समृद्ध है, और यह प्रकृति के साथ भी निरंतरता बनाए रखती है। प्रशासन क्षेत्र में मनु स्मृति, और अर्थ शास्त्र के पास शासन - सैन्य रणनीति, अर्थशास्त्र, सामाजिक कल्याण और नैतिकता में गहरी और व्यावहारिक सोच को दर्शाने में इसका दृष्टिकोण बहुत व्यापक है। भारत में विविधता में एकता है। विविध परिदृश्य में राष्ट्र की प्रगति के लिए निरंतरता बनी रहनी चाहिए। पवित्र धार्मिक पुस्तक श्रीमद् भगवत गीता सद्भाव और ब्रह्मांड के सभी अस्तित्व को रेखांकित करती है। गीता में पाए जाने वाले सहिष्णुता, प्रेम और दृष्टि के वैश्विक सिद्धांतों पर आधारित सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सामाजिक एकजुटता के माध्यम से यह प्रणाली अत्यंत समृद्ध है। प्रणाली समकालीन वैश्विक चुनौतियों से निपटने में अहम रोल अदा करती है।

Authors
उर्मिल वत्स, एसोसिएट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, श्यामा प्रसाद मुखर्जी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
लवी वत्स, सहायक प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग, विवेकानंद व्यावसायिक अध्ययन संस्थान, टीसी आईपी विश्वविद्यालय दिल्ली।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.1

Price: 251

‘नए भारत’ की अवधारणाः दूरदर्शी राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका

By: आलोक कुमार गुप्ता , संजय कुमार अग्रवाल

Page No : 9-25

Abstract
इस संसार में केवल परिवर्तन निरन्तर चलता रहता है। इसलिए, राष्ट्र-राज्य कभी तेज़ गति से तो कभी कछुए की गति से बदलते रहते हैं। परिवर्तन को जो गति प्रदान करता है, वह नेतृत्व है। इस अर्थ में समकालीन भारत वास्तव में ‘नया भारत’ है। पिछले दशक में भारतीय नेतृत्व ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही तरह से अपने व्यक्तित्व में कई रंग जोड़े हैं। ऐसा संभव हो पाया क्योंकि पिछली सरकारों ने भी भारत को सजाया, संवारा और संजोया था। प्रत्येक सरकारें अपना अभूतपूर्व योगदान देती आई हैं । परन्तु नया भारत अपने विकास की गति, वृद्धि और आधुनिकीकरण के साथ-साथ अपनी विषय-वस्तु की दृष्टि से काफी भिन्न है। नतीजतन, ‘ब्रांड इंडिया’ पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था और राजनीति के विभिन्न क्षेत्रों में छा रहा है। इस लेख में लेखकों ने ‘ब्रांड इंडिया’ को एक घटना बनाने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अस्तित्व के सभी पहलुओं में भारत की तेजी से आगे बढ़ती प्रगति के अवलोकन का प्रयास किया है। लेखकों ने समझा है कि यह नेतृत्व की शैली और दृढ़ संकल्प है जो इस वर्तमान मे संभव बना रहा है।

Authors
आलोक कुमार गुप्ता, एसोसिएट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान एवं लोक प्रशासन विभाग, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, चेरी-मनातू, रांची।
संजय कुमार अग्रवाल, सहायक प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान एवं लोक प्रशासन विभाग, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, चेरी-मनातू, रांची।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.2

Price: 251

विकास पर पुनर्विचारः पश्चिमी बनाम भारतीय परम्परा

By: रेनू , सार्तिक बाघ

Page No : 26-37

Abstract
वैश्विक स्तर पर अधिकांश देश विकास को मापने के लिए जीडीपी-आधारित मॉडल का उपयोग करते हैं। लेकिन विकास का अर्थ केवल आर्थिक विकास है या कुछ और? यह समकालीन समय में वाद-विवाद का एक मुख्य प्रश्न बना हुआ है। समकालीन समय में विश्व को अनेक प्रकार की पर्यावरणीय समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जिसके पीछे मुख्य कारण हमारे द्वारा अपनाए जाने वाले विकास के तरीके हैं। भारत भी विकास के पश्चिमी मॉडल की ओर तीव्रता से अग्रसर हो रहा है तथा भारतीय परंपराओं को पीछे छोड़ता जा रहा हैं। इसलिए आवश्यक है कि पुनः भारतीय परंपराओं के अंतर्गत विकास के अर्थ को समझे तथा उस पर अमल करें। विकास के मानक क्या हैं ? भारतीय और पश्चिमी परंपरा में विकास का क्या अर्थ है? तथा यह एक दूसरे से कैसे भिन्न? इन सभी सवालों पर इस लेख में विस्तार से चर्चा की जाएगी।

Authors
रेनू,
शोध छात्रा, राजनीति विज्ञान विभाग, बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय लखनऊ (उ.प्र.)।
सार्तिक बाघ, प्रोफेसर तथा राजनीतिक विज्ञान विभाग के अध्यक्ष, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी, लखनऊ।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.3

Price: 251

पर्यावरणीय संरक्षा एवं प्रशासन बिहार के संदर्भ में एक समीक्षा

By: शशि प्रताप शाही

Page No : 38-48

Abstract
विश्वभर में प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों खासकर जलसंसाधन का क्षय चिंतनीय स्तर तक पहुंच गया है। बिहार की पर्यावरणीय स्थिति भी इससे अछुता नही है। इस संदर्भ में प्रश्न उठता है कि बिहार की राजनीतिक व्यवस्था एवं पर्यावरण प्रशासन पर्यावरण संरक्षा में क्या कदम उठा रहा है? क्या वे कदम कारगर रहे हैं? इन्हीं प्रश्नों के आलोक में प्रस्तुत आलेख बिहार में पर्यावरण प्रदूषण की स्थिति, अपनाई गई नीतियों के कार्यन्वयन एवं पर्यावरण प्रशासन तंत्र की समीक्षा की गई है।

Author
प्रो (डॉ.) शशि प्रताप शाही, कुलपति, मगध विश्वविद्यालय, बोध-गया।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.4

Price: 251

वस्तु एवं सेवा कर (जी.एस.टी) और भारतीय संघवादः एक आलोचनात्मक विश्लेषण

By: शम्भू नाथ दुबे

Page No : 49-64

Abstract
आर्थिक सुधार की दिशा में भारत सरकार द्वारा वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) 1 जुलाई, 2017 को लागू किया गया। वैश्वीकरण व् वैश्विक संस्थाओं के परिपेक्ष्य में कर सुधार के रूप में जी.सी.टी ने कई केंद्रीय और राज्य करों को एक ही ढाँचे में बदलकर देश की कर संरचना को बदल दिया। सरकारी रिपोर्ट, अकादमिक साहित्य और कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे वैश्विक संघीय मॉडल के अध्ययन सहित माध्यमिक स्रोतों पर आधारित एक गुणात्मक पद्धति अपनाई गई। इसका प्राथमिक उद्देश्य यह आकलन करना है कि जीएसटी ने केंद्र-राज्य वित्तीय संबंधों को कैसे बदल दिया है, विशेष रूप से राज्य की स्वायत्तता और सहकारी संघवाद पर इसका प्रभाव पड़ा है। ‘‘एक राष्ट्र, एक कर‘‘ प्रणाली स्थापित करने के लिए एक ऐतिहासिक परिवर्तन के रूप में घोषित किए जाने के बावजूद, जीएसटी का भारतीय संघवाद पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। यद्यपि, निर्णय लेने का केंद्रीकरण, राजस्व के लिए केंद्र पर निर्भरता और राज्य की वित्तीय स्वायत्तता के क्षरण ने इस परिचर्चा के लिए प्रेरित किया है कि क्या जीएसटी भारतीय संविधान में निहित संघवाद के मूल सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या अतिरिक्त सहायता, योजनाओं में देरी और असहमति, मुख्यतया आर्थिक मंदी के दौरान, जी.सी.टी ने केंद्र और राज्यों के बीच मतभेद को बढ़ा दिया है। अंततः कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसी संघीय व्यवस्थाओं के साथ तुलना करके केंद्रीकृत कर प्रशासन और राज्य सरकारों की स्वायत्तता के बीच संतुलन बनाने में आने वाली कठिनाइयों को दर्शाता गया हैं। यह शोध-पत्र भारत के राजकोषीय संघवाद को बढ़ाने के प्रस्तावों का विश्लेषण, जैसे कि जीएसटी परिषद् की गतिशीलता को बदलना, राजस्व-साझाकरण व्यवस्था में सुधार करना और क्षमता निर्माण के माध्यम से राज्यों को सशक्त बनाना और भारत के संघीय ढाँंचे का समर्थन करने के लिए अधिक समतावादी और सहयोगात्मक ढांँचे की आवश्यकता पर जोर देता है।

Author
शम्भू नाथ दुबे, सह-आचार्य, ए.आर.एस.डी. कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.5

Price: 251

औपनिवेशिक काल में जनजातीय किसान आंदोलनः एक अध्ययन

By: सीमा दास , कामना कुमारी

Page No : 65-81

Abstract
भारतीय समाज में आदिवासी समूहों की महत्वपूर्ण और अविभाज्य भूमिका रही है। ब्रिटिश क्षेत्र में उनके विलय और शामिल होने से पहले उनकी अपनी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाएँ थी। अंग्रेजों ने आदिवासियों और राज्य के बीच की सीमा को समाप्त कर नए नियम लागू किए। नीति निर्माण के साथ-साथ विकास के बड़े पूजीवादी ढांँचे में भी आदिवासी किसान सबसे ज्यादा उपेक्षित हुए। इससे सरकार और आदिवासियों के बीच कई संघर्ष हुए। इन संघर्षों को आदिवासी आंदोलन या विद्रोह का नाम दिया गया। ब्रिटिश शासन के दौरान जनजातीय आंदोलन की विशेषता उनकी आवृत्ति, उग्रवाद और हिंसा थी। जनजातीय किसान आंदोलन भारतीय कृषि इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है जिसने न केवल सामाजिक न्याय और आर्थिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारत में आदिवासी आदोलनों ने औपनिवेशिक युग से लेकर आज तक सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आदिवासी समुदायों द्वारा सामना किए जाने वाले भूमि अलगाव, सांस्कृतिक दमन और आर्थिक शोषण जैसी चुनौतियों के परिणामस्वरूप इन आदोलनों का उदय हुआ। जनजातीय किसानों ने औपनिवेशिक शोषण, जमीदारी प्रथा, और वन संसाधनों पर अधिकारों के उल्लघन के खिलाफ इस विद्रोह की अगुवाई की। आर्थिक रूप से- इन आंदोलनों ने जनजातीय किसानों को संगठित किया और स्थानीय स्तर पर भूमि सुधार की मांँग को बढ़ावा दिया।

Authors
सीमा दास, सहायक प्राध्यापक, राजनीतिक वि़ज्ञान, महिला महाविद्यालय, बी.एच.यू.।
कामना कुमारी, शोध छा़त्रा, राजनीति विज्ञान, महिला महाविद्यालय, बी.एच.यू.।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.6

Price: 251

मानव अधिकार के जनजातीय पहलु

By: शिव कुमार मीणा

Page No : 82-94

Abstract
मानव अधिकारों का घोषणा पत्र मानव की अस्मिता, उसके स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा की रक्षा और चिंता में तैयार किया गया था। मानवीय शोषण, परतंत्रता तथा पराधीनतासे संपूर्ण मानव समाज को मुक्ति दिलाना ही इसका उद्देश्य था। इसीलिए यह समझना आवश्यक है कि आखिर जनजाति समाजों के लिए मानव अधिकारों की क्या प्रासंगिकता है। प्रस्तुत लेख का आशय इन्हीं मुद्दों का परीक्षण तथा इस संबंध में राजस्थान के दक्षिण भाग के जनजाति बहुल तीन जिलों में इसके प्रति जागरूकता का विश्लेषण करना है।

Author
शिव कुमार मीणा, पी.एच.डी. शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.7

Price: 251

व्यावसायिक सगठनों की भूमिका और उत्तरदायित्व: गुजरात के पाँच जिलो का रचनात्मक विश्लेषण

By: विनायक राय , प्रवीन झा , संगीता

Page No : 95-106

Abstract
कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व से तात्पर्य कॉर्पोरेट प्रशासन की उन रणनीतियों से है, जिनका उपयोग व्यावसायिक फर्म अपने परिचालन के क्षेत्र में लोगों को सामाजिक और पर्यावरणीय लाभ प्रदान करने के लिए करती हैं। इस अवधारणा का उपयोग व्यावसायिक वातावरण में वर्षों से किया जा रहा है, लेकिन इसकी उपयोगिता विशेष रूप से वैश्वीकरण के बाद के युग में अधिक स्पष्ट रूप से महसूस की गई है। हाल के वर्षों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कारण हमने व्यावसायिक दुनिया में काम करने वाली बड़ी कंपनियों का अचानक आगमन देखा है। ये कंपनियाँ न केवल अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा कर रही हैं, बल्कि अपनी रणनीतिक योजना और प्रबंधन में सामाजिक और पर्यावरणीय चिंताओं को शामिल करके अपने ग्राहक समर्थन आधार को व्यापक बनाने का भी प्रयास कर रही हैं। यहाँ यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे इस प्रयास में सफल हैं या नहीं? इस लेख का उद्देश्य कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रावधानों की जाँच करना है और यह देखना है कि 2013 का यह अधिनियम किस प्रकार व्यावसायिक संगठन के लाभ को सामाजिक निर्माण और कल्याण की ओर मोड़ने में सफल रहा है।

Authors
विनायक राय, एम. कॉम, दिल्ली विश्वविद्यालय।
प्रवीन झा, प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
संगीता, प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.8

Price: 251

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत बहुभाषी शिक्षाः भारत के विविध भाषाई परिदृश्य के मद्देनजर चुनौतियाँ और अवसर

By: मयंक भारद्वाज

Page No : 107-120

Abstract
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक सुधार कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य बहुभाषी शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करते हुए भारत की शिक्षा प्रणाली का आधुनिकीकरण करना है। यह शिक्षण के प्राथमिक माध्यम के रूप में मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग पर जोर देता है। इस शिक्षा नीति का उद्देश्य भारत की भाषाई विविधता का उपयोग करना, समावेश को बढ़ावा देना और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करना भी है। इसमें त्रिभाषा सूत्र को शामिल किया गया है, बहुभाषी डिजिटल सामग्री के विकास को प्रोत्साहित किया गया है, और शिक्षक प्रशिक्षण तथा स्थानीय पाठ्यक्रम निर्माण पर विशेष ध्यान दिया गया है। इसका उद्देश्य शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच की असमानता को खत्म करना, शैक्षिक विषमताओं को कम करना तथा सभी के लिए उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा तक समान पहुँच सुनिश्चित करना है। हालाँकि, 1,600 से अधिक भाषाओं और बोलियों वाले देश में बहुभाषी शिक्षा को लागू करना जटिल है, जिसमें सामाजिक-भाषाई प्रतिरोध, भाषाई पदानुक्रम, बुनियादी ढाँचे और संसाधन की कमी, शिक्षकों की तैयारी, नीतिगत विसंगतियों, राजनीतिक संवेदनशीलता और असंगत राज्य-स्तरीय प्रतिबद्धता जैसी चुनौतियाँ शामिल हैं। यह लेख भारत में बहुभाषी शिक्षा की संभावनाओं और चुनौतियों का विश्लेषण करता है, इसके क्रियान्वयन में आने वाली प्रमुख अड़चनों को उजागर करता है और सुधार हेतु साक्ष्य-आधारित सुझाव प्रस्तुत करता है।
 

Author
मयंक भारद्वाज, पीएचडी, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.9

Price: 251

भारत में दलीय राजनीति एवं चुनावी प्रक्रियाः चुनौतियाँ एवं सुधार

By: देवेन्द्र प्रताप तिवारी , शशिकांत पांडेय

Page No : 121-141

Abstract
भारत एक जीवंत और सशक्त लोकतंत्र है। लोकतांत्रिक राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक नियमित अंतराल पर चुनावों का होना हैं। ये ऐसे माध्यम हैं जिनके द्वारा लोगों के अपने राजनीतिक वातावरण के प्रति दृष्टिकोण, मूल्य और विश्वास परिलक्षित होते हैं। चुनाव, नेताओं के चयन और नियंत्रण के लिए केंद्रीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। चुनाव लोगों को समय-समय पर सरकार में अपना विश्वास व्यक्त करने और आवश्यकता पड़ने पर इसे बदलने का अवसर प्रदान करते हैं। चुनाव लोगों की संप्रभुता का प्रतीक हैं और सरकार के अधिकार को वैधता प्रदान करते हैं। इस प्रकार, लोकतंत्र की सफलता के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव अपरिहार्य हैं। ब्रिटिश विरासत को जारी रखते हुए, भारत ने संसदीय लोकतंत्र को चुना है। 1952 से, देश ने राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर विधायी निकायों के लिए चुनाव देखे हैं। इसके कामकाज में विकृतियाँ पहली बार पाँचवें आम चुनाव (1971) में दिखाई दी और ये लगातार होने वाले चुनावों में और भी बढ़ गईं, खासकर अस्सी के दशक और उसके बाद हुए चुनावों में। कई बार चुनाव आयोग ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए अपनी चिंता और बेचैनी व्यक्त की है।
भारत में चुनाव संबंधी कानूनी ढांँचे में कई खामियाँ हैं। दुर्भाग्य से, पिछले कुछ वर्षों में भारत की विभिन्न सरकारें चुनावी सुधारों को लेकर गंभीर नहीं रही हैं। घोटाले और विवाद एक स्थापित प्रवृत्ति बन गए हैं, जहाँ छोटे और क्षेत्रीय दलों ने सीट शेयरिंग, मनी लॉन्ड्रिंग, ब्लैकमेलिंग, राजनीति का अपराधीकरण, काले धन का प्रवाह जैसे विभिन्न मुद्दों पर राष्ट्रीय दलों को बंधक बना रखा है। उपरोक्त सभी कारक बताते हैं कि हमारे देश में सतत् चुनावी सुधार की आवश्यकता है। भारत में चुनावी प्रक्रिया को स्वच्छ करने के लिए चुनाव आयोग द्वारा कई नई पहले की गई हैं। पिछले कुछ वर्षों में देश भर में कई मंचों और मीडिया में इस पर चर्चा हुई है।

Authors
देवेन्द्र प्रताप तिवारी, सहायक प्राध्यापक, राजनीति विज्ञान विभाग, आर. डी. एस. कॉलेज,मुजफ्फरपुर।
शशिकांत पांडेय, सहायक प्राध्यापक, राजनीति विज्ञान विभाग, एल. एस. कॉलेज, मुजफ्फरपुर।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2025.17.01.10

Price: 251

पुस्तक समीक्षाः रूपक कुमार, संसदीय लोकतंत्रा में विपक्ष की बदलती भूमिका और प्रासंगिकता

By: ..

Page No : 142-146

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Instruction to the Author

आलेख में सामग्री को इस क्रम में व्यवस्थित करेंः आलेख के शीर्षक, लेखकों के नाम, पते और ई-मेल, लेखकों का परिचय, सार संक्षेप, (abstract) संकेत शब्द, परिचर्चा, निष्कर्ष/सारांश, आभार (यदि आवश्यक हो तो) और संदर्भ सूची । 

सारसंक्षेपः सारसंक्षेप (abstract) में लगभग 100-150 शब्द होने चाहिए, तथा इसमें आलेख के मुख्य तर्को का संक्षिप्त ब्यौरा हो। साथ ही 4-6 मुख्य शब्द (Keywords) भी चिन्हित करें । 

आलेख का पाठः आलेख 4000-6000 शब्दों से अधिक न हो, जिसमें सारणी, ग्राफ भी सम्मिलित हैं। 

टाइपः कृपया अपना आलेख टाइप करके वर्ड और पीडीएफ दोनों ही फॉर्मेट में भेजे । टाइप के लिए हिंदी यूनिकोड का इस्तेमाल करें, अगर आपने हिंदी के किसी विशेष फ़ॉन्ट का इस्तेमाल किया हो तो फ़ॉन्ट भी साथ भेजे, इससे गलतियों की सम्भावना कम होगी, हस्तलिखित आलेख स्वीकार नहीं किए जाएंगे। 

अंकः सभी अंक रोमन टाइपफेस में लिखे। 1-9 तक के अंको को शब्दों में लिखें, बशर्ते कि वे किसी खास परिमाण को न सूचित करते हो जैसे 2 प्रतिशत या 2 किलोमीटर। 

टेबुल और ग्राफः टेबुल के लिए वर्ड में टेबुल बनाने की दी गई सुविधा का इस्तेमाल करें या उसे excel में बनाएं। हर ग्राफ की मूल एक्सेल कॉपी या जिस सॉफ़्टवेयर मैं उसे तैयार किया गया हो उसकी मूल प्रति अवश्य भेजे  सभी टेबुल और ग्राफ को एक स्पष्ट संख्या और शीर्षक दें। आलेख के मूल पाठ में टेबुल और ग्राफ की संख्या का समुचित जगह पर उल्लेख (जैसे देखें टेबुल 1 या ग्राफ 1) अवश्य करें। 

चित्राः सभी चित्र का रिजोलुशन कम से कम 300 डीपीआई/1500 पिक्सेल होना चाहिए। अगर उसे कही और से लिया गया हो तो जरूरी अनुमति लेने की जिम्मेदारी लेखक की होगी।

वर्तनीः किसी भी वर्तनी के लिए पहली और प्रमुख बात है एकरूपता। एक ही शब्द को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से नहीं लिखा जाना चाहिए। इसमें प्रचलन और तकनीकी सुविधा दोनों का ही ध्यान रखा जाना चाहिए।

• नासिक उच्चारण वाले शब्दों में आधा न् या म् की जगह बिंदी/अनुस्वार का प्रयोग करें। उदाहरणार्थ, संबंध के बजाय संबंध, सम्पूर्ण की जगह संपूर्ण लिखें। 

• अनुनासिक उच्चारण वाले शब्दों में चन्द्रबिन्दु का प्रयोग करें। मसलन, वहाँ, आये , जाएंगे, महिलाएं, आदि-आदि। कई बार सिर्फ बिंदी के इस्तेमाल से अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए इसका विशेष ध्यान रखें, उदाहरण के लिए हंस और हँस। 

• जहाँ संयुक्ताक्षरों मौजूद हों और प्रचलन में हों वहाँ उन संयुक्ताक्षरों का भरसक प्रयोग करें। 

• महत्व और तत्व ही लिखें, महत्व या तत्व नहीं। 

• जिस अक्षर के लिए हिंदी वर्णमाला में अलग अक्षर मौजूद हो, उसी अक्षर का प्रयोग करें। उदाहरण के लिए, गए गयी की जगह गए, गई लिखें। 

• कई मामलों में दो शब्दों को पढ़ते समय मिलाकर पढ़ा जाता है उन्हें एक शब्द के रूप् में ही लिखें। उदाहरण के लिए, घरवाली, अखबारवाला, सब्जीवाली, गाँववाले, खासकर, इत्यादि। 

• पर कई बार दो शब्दों को मिलाकर पढ़ते के बावजूद उन्हें जोड़ने के लिए हाइफन का प्रयोग होता है। खासकर सा या सी और जैसा या जैसी के मामले में। उदाहरण के लिए,एक-सा, बहुत-सी, भारत-जैसा, गांधी-जैसी, इत्यादि। 

• अरबी या फारसी से लिए गए शब्दों में जहाँ मूल भाषा में नुक्ते का इस्तेमाल होता है। वहाँ नुक्ता जरूर लगाएं। ध्यान रहें कि क, ख, ग, ज, फ वाले शब्दों में नुक्ते का इस्तेमाल होताहै। मसलन, कलम, कानून, खत, ख्वाब, खैर, गलत, गैर इलरजत, इजाफा, फर्ज, सिर्फ। 

उद्धरणः पाठ के अंदर उद्धृत वाक्यांशों को दोहरे उद्धरण चिह्न (’ ’) के अंदर दें। अगर उद्धृत अंश दो-तीन वाक्यों से ज्यादा लंबा  हो तो उसे अलग पैरा में दें। ऐसा उद्धृत पैराग्राफ अलग नजर आए इसके लिए उसके पहले बाद में एक लाइन का स्पेस दें और पूरा पैरा को इंडेंट करें और उसके टाइप साईज को छोटा रखें। उद्धृत अंश में लेखन की शैली और वर्तनी में कोई तबदीली या सुधार न करें । 

पादटिप्पणी और हवाला (साईटेशन):  सभी पादटिप्प्णियाँ और हवालों (साईटेशन) के लिए मूल पाठ में 1,2,3,4,..... सिलसिलेवार संख्या दे और आलेख के अंत में क्रम में दे। वेबसाईट के मामले में उस तारीख का भी जिक्र करे जब अपने उसे देखा हो। मसलन, पाठ 1, मनोरंजन महंती, 2002, पृष्ठ और हर हवाला के लिए पूरा संदर्भ आलेख के अंत में दें।

सन्दर्भ: इस सूची में किसी भी संदर्भ का अनुवाद करके न लिखें, अथार्थ संदर्भो को उनकी मूल भाषा में रहने दें। यदि संदर्भ हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं के हो तो पहले हिन्दी वाले संदर्भ लिखें तथा इन्हें हिन्दी वर्णमाला के अनुसार, और बाद में अंग्रेजी वाले संदर्भ को अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार सूचीबद्ध करें । 

•ए.पी.ए. स्टाइल फोलो करें। 

•मौलिकताः ध्यान रखें कि आलेख किसी अन्य जगह पहले प्रकाशित नहीं हुआ हो तथा न ही अन्य भाषा में प्रकाशित आलेख का अनुवाद हो। यानी आपका आलेख मौलिक रूप से लिखा गया हो। 

•कोशिश होगी कि इसमें शामिल ज्यादातर आलेख मूल रूप से हिंदी में लिखे गए हो । लेखकों से अपेक्षा होगी कि वे दूसरे किसी लेखक के विचारों और रचनाओं का सम्मान करते हुए ऐसे हर उद्धरण के लिए समुचित हवाला/संदर्भ देंगे ।अकादमिक जगत के भीतर बिना हवाला दिए नकल या दूसरों के लेखन और विचारों को अपना बताने (प्लेजियरिज्म) की बढ़ती प्रवृत्ति देखते हुए लेखकों का इस बारे मे विशेष ध्यान देना होगा । 

•समीक्षा और स्वीकृतिः प्रकाशन के लिए भेजी गयी रचनाओं पर अंतिम निर्णय लेने के पहले संपादक मडंल दो समीक्षकों की राय लेगा, अगर समीक्षक आलेख मे सुधार की माँग करें तो लेखक को उन पर गौर करना होगा।

•संपादन व सुधार का अंतिम अधिकार संपादकगण के पास सुरक्षित हैं। 

•कापीराइटः प्रकाशन का कापीराइट लेखक के पास ही रहेगा पर हर रूप में उसका प्रकाशन का अधिकार आई आई पी ए के पास होगा। वे अपने प्रकाशित आलेख का उपयोग अपनी लिखी किताब या खुद संपादित किताब मे आभार और पूरे संदर्भ के साथ कर सकते हैं। किसी दूसरे द्वारा संपादित किताब में शामिल करने की स्वीकृति देने के पहले उन्हें आई आई पी ए से अनुमति लेनी होगी।
 

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