लोक प्रशासन - A UGC-CARE Listed Journal

Association with Indian Institute of Public Administration

Current Volume: 15 (2023 )

ISSN: 2249-2577

Periodicity: Quarterly

Month(s) of Publication: मार्च, जून, सितंबर और दिसंबर

Subject: Social Science

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लोक प्रशासन भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की एक सहकर्मी समीक्षा वाली त्रैमासिक शोध पत्रिका है ! यह UGC CARE LIST (Group -1 ) में दर्ज है ! इसके अंतर्गत लोक प्रशासन, सामाजिक विज्ञान, सार्वजनिक निति, शासन, नेतृत्व, पर्यावरण आदि से संबंधित लेख प्रकाशित किये जाते है !

अध्यक्ष
श्री एस. एन. त्रिपाठी

महानिदेशक, आई. आई. पी. ए. 
नई दिल्ली


सम्पादक
डा0 साकेत बिहारी 

आई. आई. पी. ए, नई दिल्ली


सह-सम्पादक
डा0 कृष्ण मुरारी 

दिल्ली विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली


सम्पादक मंडल
श्री के. के. सेठी

अध्यक्ष, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ
 क्षेत्रीय शाखा (आई. आई. पी. ए,)


प्रो. श्रीप्रकाश सिंह

दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली


डा0 शशि भूषण कुमार

सह-आचार्य, मुजफ्फरपुर
बिहार


डा0 अभय प्रसाद सिंह

दिल्ली विश्वविद्यालय
नई दिल्ली 


डा0 रितेश भारद्वाज

दिल्ली विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली


श्री अमिताभ रंजन

कुलपति,आइ.आइ.पी.ए. नई दिल्ली


पाठ संशोधक
स्नहे लता

Volume 15 Issue 2 , (Apr-2023 to Jun-2023)

सम्पादकीय

By: ..

Page No : v

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भारतीय लोकतंत्र में संविधान की केन्द्रियता

By: अभय प्रसाद सिंह , कृष्ण मुरारी , रूपक कुमार

Page No : 1-16

Abstract
इस आलेख का उद्देश्य संविधान में निहित उन मूल्यों को समझना है जिसकी प्रासंगिकता मतदाताओं की आकांक्षाओं एवं संसाधनों की उपलब्धता के राजनीतिक अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में संवादित है। संविधानिक लाके तंत्र के केंद्र में पंथनिरपेक्षता, बंधुत्व, सामाजिक न्याय, संघवाद, स्वायत्त एवं संवैधानिक संस्थाएँ बहुदलीय प्रणाली और शक्तियों के पृथक्करण, आदि सार्वभौमिक मूल्य के रूप में अभिव्यक्त हैं। इस शोध आलेख में संविधानिक भारतीय लाके तंत्र के इन्हीं कुछ मूल्यों के अवश्यम्भाविता का परीक्षण किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य संबद्ध आयाम जैसे संविधान का देश के सर्वोपरि विधि संहिता एवं इससे जनित संविधानवाद की बहस, संविधानवाद के वैकल्पिक प्रारूप की संभाव्यता का विमर्श , आदि का इस शोध आलेख में  विश्लेषण किया गया है। 

Authors :
प्रोफेसर अभय प्रसाद सिंह : (पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय) 
डॉ. कृष्ण मुरारी : (शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय)
डॉ. रूपक कुमार : (शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय) 
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.1

Price: 251

भारतीय लोकतंत्रा, संरचनात्मक असमानता और मुफ्तखोरी संस्कृति

By: पंकज लखेरा

Page No : 17-37

Abstract
16 जुलाई 2022 को अपने एक भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने मुफ्तखोरी संस्कृति या उनके ही शब्दों में कहें तो रेवाड़ी संस्कृति की आलाचे ना की और कहा कि यह देश के विकास के लिए खतरनाक होगी। वह बुन्देलखंड एक्सप्रेसवे के उद्घाटन अवसर पर जनता को संबोधित कर रहे थे। इसके बाद इस तरह के गलत व्यवहार को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई। अदालत ने मामले को देखने के लिए सभी हितधारको को शामिल करते हुए एक विशेष समिति बनाने का फैसला किया, लेकिन बाद में मामले को तीन न्यायाधीशों की पीठ के पास भजे दिया। अक्टूबर 2022 में चुनाव आयोग ने सभी पार्टियों द्वारा भरे जाने के लिए एक मानक पोरफार्मा जारी किया, जिसमें बताया गया कि वे अपने चुनावी वादों को कैसे पूरा करेंगे। हालाँकि, कई विपक्षी दलों ने इस आधार पर चुनाव आयोग के कदम की आलाचे ना की कि यह उनके लोकतांत्रिक अधिकार का उल्लंघन होगा। ऐसी ही घटना 2013 में हुई थी जब सुब्रमण्यम बनाम तमिल नाडु मामले में सुप्रीम कार्टे  ने कहा था कि हालांकि मुफ्त वितरण को भ्रष्ट आचरण नहीं कहा जा सकता है, लेकिन पार्टियों को अपने वादों के पीछे का तर्क बताना होगा और उन्हें वही वादे करने का आदेश दिया जिन्हें पूरा किया जा सके। लेकिन, इस बार यह मुद्दा प्रधानमंत्री ने उठाया। इसने आवश्यक कल्याणकारी सेवाओं और मुफ्त वस्तुओ के रूप में सार्वजनिक धन की बर्बादी के बीच अंतर पर एक नई बहस को जन्म दिया। (साहू, घोष, चैरसिया, 2022) हमारे विचार में, हमारे माननीय प्रधान मंत्री द्वारा उठाई गई यह बहस केवल सार्वजनिक धन के विवेकपूर्ण उपयागे तक सीमित नहीं है। यह हमारे समाज के कमजोर वर्गों के सशक्तिकरण के माध्यम से लाके तंत्र को मजबूत करने के बारे में एक प्रासंगिक सवाल भी उठाता है। समय का सवाल यह है कि क्या केवल मुफ्त वस्तुओं के वितरण से इन वर्गों को सार्थक तरीके से मदद मिलेगी या हमारे समाज से संरचनात्मक असमानताओं को कम करके इन वर्गों का सशक्तिकरण संभव है? क्या ये मुफ्त उपहार हमारे लाके तंत्र को मजबूत करते हैं यालंबे समय में इसे कमजोर कर देंगे ? 

Author :
पकंज लखेरा : सहायक प्रोफेसर, राजनीति शास्त्र विभाग, स्वामी श्रदानन्द काॅलेज दिल्ली, विश्वविद्यालय दिल्ली। 
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.2

Price: 251

भारतीय कानून का व्याख्यात्मक अध्ययन एवं अवलोकन

By: चन्दन कुमार

Page No : 38-51

Abstract
इस आलेख में कानून क्या है? प्राचीन काल से लेकर अब तक के कानून के निर्माण एवं व्याख्याऔ पर चर्चा की गई है। काननू शब्द से अभिप्राय किसी देश या राज्य का अधिकारिक नियम से है जो दर्शाता है कि लोग क्या करे क्या न करे? इस संदर्भ में पशिचम और पूर्व के कानून की अवधारणाओं एवं व्याख्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है। इस लेख का मुख्य प्रश्न यह है कि भारत के संदर्भ में  काननू का प्राचीन काल से आधुनिक काल तक क्या स्वरूप रहा है और कैसे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थि क परिवर्तन का कानून के निर्माण एवं स्वरूप पर प्रभाव पड़ा है। प्राचीन काल की परम्परा और प्रथा अब नियम कानून के रूप में परिवर्तित होते जा रहे है। एवं इसकी व्याख्या में न्यायपालिका और न्यायाधीशो की भूि मका अहम हा गई है।

Author :
चन्दन कुमार : सहायक प्राध्यापक, दयाल सिंह संध्या कॉलेज, राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय। 
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.3

Price: 251

प्रधानमन्त्राी नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में भारतीय संघवाद का परिद्रिश्य 

By: पंकज कुमार सिंह , विजय शंकर चैधरी

Page No : 52-70

Abstract
भारतीय संघीय संरचना विश्व का एक विशिष्ट संघीय प्रतिरूप है। भारतीय संविधान में यद्यपि शाब्दिक तौर पर भारतीय गणराज्य को संघीय घाेि षत नहीं किया गया है तथापि राज्य को पर्याप्त संवैधानिक शक्तियाँ दी गइ र्हैं। संविधान के शब्दों की तुलना में भारतीय राजनीति की गतिशीलता ने भारतीय संघीय प्रणाली के कार्यकरण को वास्तव में निर्धारित एवं निरूपित किया है। एकदलीय प्रभुत्व प्रणाली के दौर में जहाँ केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल दिखाई देती है वही गठबंधन सरकारों के दौर में राज्यों के पक्ष में शक्तियों का संतुलन अपेक्षाकृत ज्यादा दृष्टिगत होता है। इस अध्ययन में यह विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है कि 30 वर्षों की  गठबंधन राजनीति के बाद 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेत्त्रव में एक दल की  बहुमत प्राप्त सरकार आई हालाँकि इसे अन्य दलों का समर्थन प्राप्त था, इस  एकदलीय प्रभुत्व प्रणाली ने कैसे भारतीय संघीय संरचना एवं कार्यकरण को परिवर्तित किया है और भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को कैसे और किस रूप में प्रभावित किया है ?

Authors :
डॉ. पंकज कुमार सिंह : सहायक प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी (बिहार)।
विजय शकंर चैधरी : शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.4

Price: 251

संसदीय लोकतंत्रा एवं विपक्ष : एक सैद्धांतिक उपागम

By: जया ओझा

Page No : 71-86

Abstract
समकालीन समय में संसद एक बहुआयामी संस्था के रूप में परिलक्षित होती  है। केवल भारत में ही नहीं, अपितु संसदीय राजनीतिक व्यवस्था वाले अन्य देशो में भी यही स्थिति है। संसद के बहुत से कृत्य हैं, परन्तु सबसे महत्वपूर्ण  कार्य जनता का प्रतिनिधित्व करना तथा देश के लिए सरकार का गठन करना है। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में विपक्ष के अस्तित्व का अत्यंत महत्व है तथा यह स्वयं लोकतंत्र का सर्वाधिक विशिष्ट गुण है। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत वाद, विमर्श तथा विमति की व्यवस्था अंतर्निहित होती है, जिसमें संवाद के लिए निरंतर अवसर एवं अनुकूलता बनी रहती हैं । एक गाँव की पंचायत से लेकर संसद तक सभी संस्थाएँ संवाद तथा विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न होती है।अतएव संसदीय लाके तंत्र में एक स्थिर तथा सामथ्र्यशील विरोधी पक्ष उतना ही आवश्यक है, जितनी कि एक स्थिर सरकार। विपक्ष के द्वारा ही संसदीय लोकतंत्र में विचार-विमर्श, वाद, विवाद तथा संवाद संभव होता है। यद्यपि यह देखा गया है कि संसदीय प्रणाली के अंतर्गत किसी भी प्रकार की दलीय प्रणाली व्याप्त हो  परन्तु वहाँ विपक्ष सदैव मह्त्वपूर्व रहा है। ए॰ एल॰ लावेल के अनुसार “किसी भी दलीय प्रणाली की सफलता विपक्ष की वैधानिक मान्यता पर आधारित होती  है”।प्रस्तुत आलेख संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की उत्पत्ति, उपस्थिति एवं उसकी उपादेयता के सैद्धांतक दृष्टिकोढ़  पर
आधारित है। इसके अतिरिक्त यह विभिन्न दलीय प्रणालियों में भी विपक्ष के विविध स्वरूपों का विश्लेषण प्रसतुत करता है। 

Author :
जया ओझा : पीएचडी शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.5

Price: 251

वन संसाधन, श्रेणीकरण और विशेष रूप से कमजोर जनजाति समूह (पीवीटीजी)

By: कमल नयन चौबे

Page No : 87-103

Abstract
श्रेणीकरण या कैटेगराइजेशन आधुनिक समय की महत्त्वपूर्ण परिघटना है। भारत में भी जनगणना के साथ जनसंख्या को विभिन्न श्रेणियों में बाँटने की प्रक्रिया ज्यादा व्यवस्थित रूप से आरंभ हुई। अमूमन यह माना जाता है कि श्रेणीकरण से राज्य को विभिन्न समूहों के बारे में कल्याणकारी नीतियाँ बनाने में आसानी होती है। बहुत से समूह खुद को गाले बंद करने और संसाधनों पर अपना हक जताने के लिए इन श्रेणियों का उपयोग करते रहे हैं। लेकिन यह भी माना जाता है कि जनसंख्या का श्रेणीकरण राज्य को विभिन्न समूहों का नियंत्रण करने में सहायता उपलब्ध कराता है। प्रस्तुत आलेख भारत के संबसे वंचित समूहों में से एक पीवीटीजी (पार्टिकुलरली वलनरबे ल ट्राइबल ग्रुप्स या विशेष रूप से कमजारे जनजाति समूह) समूह की संरचना तथा इसके अंतर्गत आने वाली जनजातियों के जीविका और पहचान की सुरक्षा के  लिए जद्दोजहद और इस संदर्भ में राज्य की भूमिका की पड़ताल करता है। डोंगरिया कोंध आदिवासियों के नियमगिरी संघर्ष के वृतातं के माध्यम से इस आलेख में इन समूहों के संघर्ष में कानून, नागरिक समाज और राज्य की भूमिका की पड़ताल की  गयी है। आलेख यह तर्क देता है कि पीवीटीजी समूहों की भलाई के लिए बहुस्तरीय काम करने की आवश्यकता है, किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अपने जीविका और सांस्कृतिक पहचान को कायम रखने की उनकी स्वायत्तता को मान्यता दी जाए, और इसकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। 

Author :
कमल नयन चौबे : लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह काॅलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.6

Price: 251

स्थानिक राजनय, लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण एवं लोकप्रशासन

By: मीना रानी

Page No : 104-115

Abstract
राजनय या कूटनीति का स्थानीयकरण कोई नई राजनीतिक अवधारणा नहीं है। इसे पैराडिप्लोमेसी अथवा स्थानिक राजनय कहा जाता है। स्टीफन वोल्फ ने पैराडिप्लोमेसी को ‘उप-राज्य संस्थाओं की उनके महानगरीय राज्य से स्वतंत्र विदेश नीति में उनकी भागीदारी, अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में उनके अपने स्वयं के अंतरराष्ट्रीय हितो की खोज में उनकी विदेश नीति क्षमता‘ के रूप में वर्णित किया है। वोल्फ के लेखन में उप-राज्य संस्थाओं की उभरती नीति क्षमता के रूप में पैराडिप्लामे ेसी का आनंद संधो के राज्यों (या प्रांतों और क्षेत्रों) और स्वायत्त इकाई दोनों द्वारा किया जाता है। दुनिया के अलग-अलग देशों में  कूटनीति का यह स्वरूप पिछले दो-तीन दशक में अधिक प्रचलन में आया है। एक लोकतांत्रिक संघीय प्रणाली वाले राष्ट्र के भीतर स्थानीय सरकारों की सक्रियता एवं आर्थिक बदलावों ने कूटनीति के स्थानीयकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। व्यापार एवं निवेश से सम्बंधित आर्थिक कूटनीति में अमेरिका, कनाडा, बेल्जियम, स्पेन, जापान, दक्षिण कोरिया और यहां तक कि चीन एवं रूस जैसे अधिनायकवादी देशो में स्थानिक कूटनीति लोकप्रिय हो चुकी है। इस आलेख के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया गया हैं कि भारत में भी र्कइ  राज्य सरकारों ने पैराडिप्लोमेसी के माध्यम से देश की विदेश नीति को प्रभावित करने के साथ-साथ अपने लिए आर्थि क अवसरों में वृद्धि की है । स्थानिक राजनय से लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण को गति मिलती है जिसका प्रभाव लाके प्रशासन की पद्धतियों पर पड़ना स्वाभाविक है। 

Author :
मीना रानी : सहायक आचार्य, लाके प्रशासन विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.7

Price: 251

महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी की तर्ज पर शहरी रोजगार गारंटी योजना के लिए राज्यों के द्वारा की जाने वाली पहल 

By: बलदेव सिंह नेगी

Page No : 116-131

Abstract
भारत के बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एम.पी.आई.) 2021 के अनुसार 25.01 प्रतिशत आबादी बहुआयामी गरीब है। दूसरी ओर भारत दूनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है जो 2026 तक पांच ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर और 2047 तक 40 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की आकांक्षा रखता है, जब भारत अपनी आजादी के 100 साल पुरे करेगा। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के  आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पी.एल.एफ.एस.) के अनुसार, अक्टूबर-दिसंबर, 2022 में  शहरी बेराजे गारी दर 7.2 प्रतिशत थी, जो ग्रामीण से अधिक है। बेरोजगारी या अल्प-रोजगार, शहरी क्षेत्रों में काम की आकस्मिक और रुक-रुक कर होने वाली  प्रकृति ऋणग्रस्तता का कारण बनती है, जो बदले में गरीबी के संकट को मजबूत करती है। ये संकट काेि वड जैसी राष्ट्रीय आपदा के दौरान अधिक भयानक हो जाते हैं जो शहरी गरीबों और अनौपचारिक क्षेत्रों के श्रमिकों को प्रभावित करता है और कभी-कभी विपरीत प्रवासन का परिणाम होता है। ऐसी स्थिति में राज्य प्रायाेि जत नौकरी की गारंटी ग्रामीण या शहरी किसी भी इलाके के कमजोर श्रमिको के लिए आखिरी उम्मीद बन जाती है। कोविड-19 महामारी केदौरान मजदूरो के सामने रोजी -रोटी की समस्या आई और कुछ राज्यों ने समाधान के तौर पर अर्बन जॉब गारंटी की पहल की थी। वर्त मान शोध पत्र में शहरी गरीबों के लिए शहरी रोजगार  गारंटी योजनाएँ बनाने के लिए विभिन्न राज्य सरकारो की पहलों का अध्ययन करने का प्रयास किया गया है। इसके लिए विभिन्न स्तोत्रों की सहारा लिया गया है जिसमें संबंधित राज्य सरकारों की सालाना रिपोर्ट  और ऑनलाइन डेटा, विभिन्न संस्थानों के शोध अध्ययन और समाचार पत्रों की रिपार्टे  शामिल हैं।

Author :
बलदेव सिंह नेगी : परियोजना अधिकारी एवं संकाय सदस्य, ग्रामीण विकास, अंतःविषय अध्ययन विभाग, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, समरहिल शिमला-171005.
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.8

Price: 251

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के सापेक्ष भारत में विलंबित न्याय और मानवाधिकार की समीक्षा

By: निशांत यादव

Page No : 132-147

Abstract
किसी भी समाज में शांति, सुरक्षा एवं सह-अस्तित्व बनाये रखने के लिए न्याय व्यवस्था का द्रुतगामी होना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है परन्तु यदि भारतीय सन्दर्भ में बात करें तो यहाँ न्याय तक पहुँच बहुत ही जटिल व श्रम साध्य कार्य है। भारत में  यदि विचाराधीन कैदियों के परिप्रेक्ष्य में न्याय तक पहुँच या त्वरित न्याय की जाँच-पड़ताल की जाए तो यह दृष्टिगत होता है कि यहाँ स्थिति पहले से ही ऐसी रही है कि मामूली अपराध के लिए भी व्यक्तियों को न्यायालय के आदेश के इंतज़ार में लम्बी अवधि तक विचाराधीन कैदी के रूप में जेलों में रहना पड़ा है। जिन्हे जमानत मिली, उन्हें भी अदालत के सालां-े साल चक्कर काटने पड़े और जो लोग न्याय पाने के लिए अदालत की शरण लेते हैं उन्हें भी न्याय के लिए कई साल तक इंतजार करना पड़ता है। उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई  करते हुए कहा था, यदि मुकदमे समय पर खत्म नहीं होते, तो व्यक्ति पर जो अन्याय हुआ है, वह अथाह है । इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2022 के आँकडो से इस हालात को और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। भारत की जेलों में बंद केवल 22 प्रतिशत लागे ही सजायाफ़्ता मुजरिम हैं, 77.10 प्रतिशत बंदी विचाराधीन हैं। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2022 ने यह दावा कर बताया कि साल 2010 के मुक़ाबले 2021 तक विचाराधीन बंदियों की संख्या 2.4 लाख से बढ़कर 4.3 लाख पहुँच चुकी है, यानी करीब दोगुनी हो चुकी है। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय और पुदुचेरी को छोड़कर हर राज्य/केंद्र शासित प्रदेश में विचाराधीन क़ैदी बढ़े। प्रस्तुत लेख विचाराधीन बंदियों की इस समस्या को इंडिया जस्टिस रिपोर्ट  के सापेक्ष रखकर मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश करता है। 

Author :
डॉ. निशातं यादव : राजा बलवतं सिंह महाविद्यालय, आगरा में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.9

Price: 251

बालिका शिक्षा और साइकिलः बिहार सरकार की ‘मुख्यमंत्राी बालिका साइकिल योजना’ के प्रभाव का विश्लेषण

By: निशांत कुमार

Page No : 148-162

Abstract
बिहार के पाचं जिलों में किए गए क्षेत्र सर्वेक्षण के आधार पर यह शोध महिला साक्षरता बढ़ाने के लिए बिहार सरकार द्वारा शुरू की गई मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना की भूमिका की जांच करता है। यद्यपि मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना  कई ऐसे कारको का ख्याल रखने में बेहद सफल रही है जो स्कूलों में लड़कियों के नामांकन और प्रतिधारण में बाधा थी, लेकिन इसकी कल्पना एवं कार्यान्वयन में कुछ  कमियां भी हैं। शोध पत्र यह स्पष्ट करता है कि भविष्य में योजना को और अधिक कुशल और प्रभावी बनाने के लिए इन कमियों को दूर करने की आवश्यकता है अन्यथा इस सुविचारित योजना की सफलता भविष्य में निरर्थक साबित होगी। 

Author :
निशांत कुमार : सह प्राध्यापक, राजनीति विज्ञान विभाग, दयाल सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय। 
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.10

Price: 251

राजस्थान में ग्रामीण व शहरी प्रवास के कारणाो का जेंडर पर आधारित विश्लेषणात्मक अध्ययन

By: शिव कुमार मीणा

Page No : 163-174

Abstract
जब कोई व्यक्ति अपने जन्म या जन्म से भिन्न स्थान पर जनगणना में पंजीकृत होता है तो उसे प्रवासी माना जाता है। प्रवास अनेक कारणों से हो सकता है कुछ लोगो के लिए रोजगार के अवसरो की तलाश या अपने जीवन को बेहतर करने की इच्छा। जबकि, कुछ मजबूरी के चलते तो कुछ अन्य लोगों के लिए अपने निवास स्थान की परिस्थितियाँ प्रवास के लिए विवश कर देती हैं। वर्तमान युग में तीव्र आर्थि क विकास, संचार की सरलता व लोगों के बीच आसान सम्पर्क के कारण लोग अपने जीवन को बेहतर करने हेतु अवसरों की खाजे में आसानी से पलायन कर जाते है। प्रस्तुत लेख में जेण्डर के विशेष संदर्भ में राजस्थान के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रो से तथा राज्यों में होने वाले प्रवास के कारणो का अध्ययन किया गया है। इसके लिए 2011 की जनगणना के द्वितीयक आंकड़ां का अध्ययन किया गया है। विश्लेषण से ज्ञात हुआ की ग्रामीण व शहरी प्रवासियों के अनुपात में मह्त्वपूर्ण अंतर है। यही अंतर जेण्डर के संदर्भ में भी देखने को मिलता है। 

Author :
शिव कुमार मीणा : पी.एच.डी. शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.11

Price: 251

भारत में भारतीय संविधान के तहत सुशासन और सतत् विकास

By: लक्ष्मी परेवा

Page No : 175-188

Abstract
हर देश की प्रगति उसके शासन के स्तर पर निभर्र करती है। एक समृद्ध राष्ट्र का निर्माण करना जिसमें निवासियों की भलाई एक सर्वोच्च चिंता है, मजबतू नेतृत्व की आवश्यकता है। मानव इतिहास में विभिन्न बिंदुआं पर स्थापित सुशासन के सिद्धांतो के विरूद्ध मापे जाने पर सरकार की वैधता को संदेह में कहा जा सकता है। यह सुनिश्चित करने में संविधान एक महत्वपूर्ण कारक है कि सरकार सुशासन के सिद्धांतों के अनुसार काम करती है, क्यूंकि यह अधिकांश आधुनिक सरकारों की भूमिका और जिम्मेदारियों को परिभाषित करती है। लेकिन किसी भी तरह का शासन तब तक अच्छा नहीं हो सकता जब तक कि वह विकास को बढ़ावा देने के लिए समय की उभरती जरूरतों के अनुकूल न हो उसी हद तक, आधुनिक युग दुनिया को सतत विकास के एक नए मॉडल की ओर बढ़ता हुआ देखता है, जिसके लिए आव्यशकताओ को अपने पारंपरिक सिद्धांतों के अलावा सुशासन के रूप मं शासन को न्यायोचित ठहराने के लिए नए मापदंडो के रूप में देखा जा सकता है। इसके अलावा, 17 सतत विकास लक्ष्यों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनाया गया और 2030 तक पूरा किया जाना है। इन 17 लक्ष्यां में से लक्ष्य 16 द्वारा सतत विकास को प्राप्त करने में सुशासन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है, जो सुशासन के लिए संस्थानों और प्रक्रियाओं की स्थापना की मांग करता है। सतत् विकास की अवधारणा के उदय के कारण और स्पष्ट बदलाव के आलोक में, यह लेख यह पता लगाने की कोशिश करता है कि क्या भारतीय संविधान सुशासन की खोज मं इन नए विचारो को संबोधित करने के लिए जगह देता है और यदि हां, तो क्या देश  की शासन प्रणाली इस तरह के शासन की स्थापना के लिए आवश्यक मापदंडों को बनाए रखने में सफल रही है। 

Author :
डाॅ लक्ष्मी परेवा : सहायक आचार्य, लोकप्रशसन विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.12

Price: 251

भारत में सकारात्मक कार्यवाही और आरक्षण

By: अरविन्द कुमार यादव

Page No : 189-224

Abstract
भारत में कई दशकों से सकारात्मक कार्यवाही नीति के तहत समाज के उपेिक्षत वर्गो को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया जाता रहा है। सरकार ने उपेक्षित वर्गों के चहुँमुखी विकास के लिए सामाजिक न्याय के तहत अनेक लक्ष्य निर्धारित किए हैं जिसमें उनके समावेशीकरण करने के लिए अनेक नीतिया प्रमुख हैं। भारतीय समाज के उपेि क्षतों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग, दिव्यांग, महिला और आर्थिक रूप से कमजारे वर्गों के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया है ताकि आरक्षित वर्गों का सामाजिक, आर्थिक और  शैक्षणिक पिछड़ापन को दूर किया जा सके। संविधान का यह लक्ष्योन्मुख प्रावधान राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। प्रस्तुत शोध-पत्र में आरक्षित समुदायों के ऊपर आरक्षण का सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव को विभिन्न तथ्यां एवं आंकड़ों की सहायता से समीक्षा की गई है। 

Author :

अरविन्द कुमार यादव : एसोसिएट पा्र ेफेसर, राजनीतिक विज्ञान विभाग, डाॅ. भीमराव अम्बेडकर महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली।
 

DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.13

Price: 251

पुस्तक समीक्षाः
भारत में राष्ट्रवाद के बिम्ब, प्रो. श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी, एवं सच्चिदानंद मिश्रा, अंकित पब्लिकेशन्स, वर्ष 2018, पृष्ठ, 180 एवं मूल्यः 495 

By: ..

Page No : 225-229

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Instruction to the Author

आलेख में सामग्री को इस क्रम में व्यवस्थित करेंः आलेख के शीर्षक, लेखकों के नाम, पते और ई-मेल, लेखकों का परिचय, सार संक्षेप, (abstract) संकेत शब्द, परिचर्चा, निष्कर्ष/सारांश, आभार (यदि आवश्यक हो तो) और संदर्भ सूची । 

सारसंक्षेपः सारसंक्षेप (abstract) में लगभग 100-150 शब्द होने चाहिए, तथा इसमें आलेख के मुख्य तर्को का संक्षिप्त ब्यौरा हो। साथ ही 4-6 मुख्य शब्द (Keywords) भी चिन्हित करें । 

आलेख का पाठः आलेख 4000-6000 शब्दों से अधिक न हो, जिसमें सारणी, ग्राफ भी सम्मिलित हैं। 

टाइपः कृपया अपना आलेख टाइप करके वर्ड और पीडीएफ दोनों ही फॉर्मेट में भेजे । टाइप के लिए हिंदी यूनिकोड का इस्तेमाल करें, अगर आपने हिंदी के किसी विशेष फ़ॉन्ट का इस्तेमाल किया हो तो फ़ॉन्ट भी साथ भेजे, इससे गलतियों की सम्भावना कम होगी, हस्तलिखित आलेख स्वीकार नहीं किए जाएंगे। 

अंकः सभी अंक रोमन टाइपफेस में लिखे। 1-9 तक के अंको को शब्दों में लिखें, बशर्ते कि वे किसी खास परिमाण को न सूचित करते हो जैसे 2 प्रतिशत या 2 किलोमीटर। 

टेबुल और ग्राफः टेबुल के लिए वर्ड में टेबुल बनाने की दी गई सुविधा का इस्तेमाल करें या उसे excel में बनाएं। हर ग्राफ की मूल एक्सेल कॉपी या जिस सॉफ़्टवेयर मैं उसे तैयार किया गया हो उसकी मूल प्रति अवश्य भेजे  सभी टेबुल और ग्राफ को एक स्पष्ट संख्या और शीर्षक दें। आलेख के मूल पाठ में टेबुल और ग्राफ की संख्या का समुचित जगह पर उल्लेख (जैसे देखें टेबुल 1 या ग्राफ 1) अवश्य करें। 

चित्राः सभी चित्र का रिजोलुशन कम से कम 300 डीपीआई/1500 पिक्सेल होना चाहिए। अगर उसे कही और से लिया गया हो तो जरूरी अनुमति लेने की जिम्मेदारी लेखक की होगी।

वर्तनीः किसी भी वर्तनी के लिए पहली और प्रमुख बात है एकरूपता। एक ही शब्द को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से नहीं लिखा जाना चाहिए। इसमें प्रचलन और तकनीकी सुविधा दोनों का ही ध्यान रखा जाना चाहिए।

• नासिक उच्चारण वाले शब्दों में आधा न् या म् की जगह बिंदी/अनुस्वार का प्रयोग करें। उदाहरणार्थ, संबंध के बजाय संबंध, सम्पूर्ण की जगह संपूर्ण लिखें। 

• अनुनासिक उच्चारण वाले शब्दों में चन्द्रबिन्दु का प्रयोग करें। मसलन, वहाँ, आये , जाएंगे, महिलाएं, आदि-आदि। कई बार सिर्फ बिंदी के इस्तेमाल से अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए इसका विशेष ध्यान रखें, उदाहरण के लिए हंस और हँस। 

• जहाँ संयुक्ताक्षरों मौजूद हों और प्रचलन में हों वहाँ उन संयुक्ताक्षरों का भरसक प्रयोग करें। 

• महत्व और तत्व ही लिखें, महत्व या तत्व नहीं। 

• जिस अक्षर के लिए हिंदी वर्णमाला में अलग अक्षर मौजूद हो, उसी अक्षर का प्रयोग करें। उदाहरण के लिए, गए गयी की जगह गए, गई लिखें। 

• कई मामलों में दो शब्दों को पढ़ते समय मिलाकर पढ़ा जाता है उन्हें एक शब्द के रूप् में ही लिखें। उदाहरण के लिए, घरवाली, अखबारवाला, सब्जीवाली, गाँववाले, खासकर, इत्यादि। 

• पर कई बार दो शब्दों को मिलाकर पढ़ते के बावजूद उन्हें जोड़ने के लिए हाइफन का प्रयोग होता है। खासकर सा या सी और जैसा या जैसी के मामले में। उदाहरण के लिए,एक-सा, बहुत-सी, भारत-जैसा, गांधी-जैसी, इत्यादि। 

• अरबी या फारसी से लिए गए शब्दों में जहाँ मूल भाषा में नुक्ते का इस्तेमाल होता है। वहाँ नुक्ता जरूर लगाएं। ध्यान रहें कि क, ख, ग, ज, फ वाले शब्दों में नुक्ते का इस्तेमाल होताहै। मसलन, कलम, कानून, खत, ख्वाब, खैर, गलत, गैर इलरजत, इजाफा, फर्ज, सिर्फ। 

उद्धरणः पाठ के अंदर उद्धृत वाक्यांशों को दोहरे उद्धरण चिह्न (’ ’) के अंदर दें। अगर उद्धृत अंश दो-तीन वाक्यों से ज्यादा लंबा  हो तो उसे अलग पैरा में दें। ऐसा उद्धृत पैराग्राफ अलग नजर आए इसके लिए उसके पहले बाद में एक लाइन का स्पेस दें और पूरा पैरा को इंडेंट करें और उसके टाइप साईज को छोटा रखें। उद्धृत अंश में लेखन की शैली और वर्तनी में कोई तबदीली या सुधार न करें । 

पादटिप्पणी और हवाला (साईटेशन):  सभी पादटिप्प्णियाँ और हवालों (साईटेशन) के लिए मूल पाठ में 1,2,3,4,..... सिलसिलेवार संख्या दे और आलेख के अंत में क्रम में दे। वेबसाईट के मामले में उस तारीख का भी जिक्र करे जब अपने उसे देखा हो। मसलन, पाठ 1, मनोरंजन महंती, 2002, पृष्ठ और हर हवाला के लिए पूरा संदर्भ आलेख के अंत में दें।

सन्दर्भ: इस सूची में किसी भी संदर्भ का अनुवाद करके न लिखें, अथार्थ संदर्भो को उनकी मूल भाषा में रहने दें। यदि संदर्भ हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं के हो तो पहले हिन्दी वाले संदर्भ लिखें तथा इन्हें हिन्दी वर्णमाला के अनुसार, और बाद में अंग्रेजी वाले संदर्भ को अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार सूचीबद्ध करें । 

•ए.पी.ए. स्टाइल फोलो करें। 

•मौलिकताः ध्यान रखें कि आलेख किसी अन्य जगह पहले प्रकाशित नहीं हुआ हो तथा न ही अन्य भाषा में प्रकाशित आलेख का अनुवाद हो। यानी आपका आलेख मौलिक रूप से लिखा गया हो। 

•कोशिश होगी कि इसमें शामिल ज्यादातर आलेख मूल रूप से हिंदी में लिखे गए हो । लेखकों से अपेक्षा होगी कि वे दूसरे किसी लेखक के विचारों और रचनाओं का सम्मान करते हुए ऐसे हर उद्धरण के लिए समुचित हवाला/संदर्भ देंगे ।अकादमिक जगत के भीतर बिना हवाला दिए नकल या दूसरों के लेखन और विचारों को अपना बताने (प्लेजियरिज्म) की बढ़ती प्रवृत्ति देखते हुए लेखकों का इस बारे मे विशेष ध्यान देना होगा । 

•समीक्षा और स्वीकृतिः प्रकाशन के लिए भेजी गयी रचनाओं पर अंतिम निर्णय लेने के पहले संपादक मडंल दो समीक्षकों की राय लेगा, अगर समीक्षक आलेख मे सुधार की माँग करें तो लेखक को उन पर गौर करना होगा।

•संपादन व सुधार का अंतिम अधिकार संपादकगण के पास सुरक्षित हैं। 

•कापीराइटः प्रकाशन का कापीराइट लेखक के पास ही रहेगा पर हर रूप में उसका प्रकाशन का अधिकार आई आई पी ए के पास होगा। वे अपने प्रकाशित आलेख का उपयोग अपनी लिखी किताब या खुद संपादित किताब मे आभार और पूरे संदर्भ के साथ कर सकते हैं। किसी दूसरे द्वारा संपादित किताब में शामिल करने की स्वीकृति देने के पहले उन्हें आई आई पी ए से अनुमति लेनी होगी।
 

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