लोक प्रशासन - A UGC-CARE Listed Journal
Association with Indian Institute of Public Administration
Current Volume: 15 (2023 )
ISSN: 2249-2577
Periodicity: Quarterly
Month(s) of Publication: मार्च, जून, सितंबर और दिसंबर
Subject: Social Science
लोक प्रशासन भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की एक सहकर्मी समीक्षा वाली त्रैमासिक शोध पत्रिका है ! यह UGC CARE LIST (Group -1 ) में दर्ज है ! इसके अंतर्गत लोक प्रशासन, सामाजिक विज्ञान, सार्वजनिक निति, शासन, नेतृत्व, पर्यावरण आदि से संबंधित लेख प्रकाशित किये जाते है !
अध्यक्ष महानिदेशक, आई. आई. पी. ए. आई. आई. पी. ए, नई दिल्ली दिल्ली विश्वविद्यालय, अध्यक्ष, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली सह-आचार्य, मुजफ्फरपुर दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय, कुलपति,आइ.आइ.पी.ए. नई दिल्ली
श्री एस. एन. त्रिपाठी
नई दिल्ली
सम्पादक
डा0 साकेत बिहारी
सह-सम्पादक
डा0 कृष्ण मुरारी
नई दिल्ली
सम्पादक मंडल
श्री के. के. सेठी
क्षेत्रीय शाखा (आई. आई. पी. ए,)
प्रो. श्रीप्रकाश सिंह
डा0 शशि भूषण कुमार
बिहार
डा0 अभय प्रसाद सिंह
नई दिल्ली
डा0 रितेश भारद्वाज
नई दिल्ली
श्री अमिताभ रंजन
पाठ संशोधक
स्नहे लता
Volume 15 Issue 2 , (Apr-2023 to Jun-2023)
भारतीय लोकतंत्र में संविधान की केन्द्रियता
By: अभय प्रसाद सिंह , कृष्ण मुरारी , रूपक कुमार
Page No : 1-16
Abstract
इस आलेख का उद्देश्य संविधान में निहित उन मूल्यों को समझना है जिसकी प्रासंगिकता मतदाताओं की आकांक्षाओं एवं संसाधनों की उपलब्धता के राजनीतिक अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में संवादित है। संविधानिक लाके तंत्र के केंद्र में पंथनिरपेक्षता, बंधुत्व, सामाजिक न्याय, संघवाद, स्वायत्त एवं संवैधानिक संस्थाएँ बहुदलीय प्रणाली और शक्तियों के पृथक्करण, आदि सार्वभौमिक मूल्य के रूप में अभिव्यक्त हैं। इस शोध आलेख में संविधानिक भारतीय लाके तंत्र के इन्हीं कुछ मूल्यों के अवश्यम्भाविता का परीक्षण किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य संबद्ध आयाम जैसे संविधान का देश के सर्वोपरि विधि संहिता एवं इससे जनित संविधानवाद की बहस, संविधानवाद के वैकल्पिक प्रारूप की संभाव्यता का विमर्श , आदि का इस शोध आलेख में विश्लेषण किया गया है।
Authors :
प्रोफेसर अभय प्रसाद सिंह : (पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय)
डॉ. कृष्ण मुरारी : (शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय)
डॉ. रूपक कुमार : (शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय)
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.1
Price: 251
भारतीय लोकतंत्रा, संरचनात्मक असमानता और मुफ्तखोरी संस्कृति
By: पंकज लखेरा
Page No : 17-37
Abstract
16 जुलाई 2022 को अपने एक भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने मुफ्तखोरी संस्कृति या उनके ही शब्दों में कहें तो रेवाड़ी संस्कृति की आलाचे ना की और कहा कि यह देश के विकास के लिए खतरनाक होगी। वह बुन्देलखंड एक्सप्रेसवे के उद्घाटन अवसर पर जनता को संबोधित कर रहे थे। इसके बाद इस तरह के गलत व्यवहार को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई। अदालत ने मामले को देखने के लिए सभी हितधारको को शामिल करते हुए एक विशेष समिति बनाने का फैसला किया, लेकिन बाद में मामले को तीन न्यायाधीशों की पीठ के पास भजे दिया। अक्टूबर 2022 में चुनाव आयोग ने सभी पार्टियों द्वारा भरे जाने के लिए एक मानक पोरफार्मा जारी किया, जिसमें बताया गया कि वे अपने चुनावी वादों को कैसे पूरा करेंगे। हालाँकि, कई विपक्षी दलों ने इस आधार पर चुनाव आयोग के कदम की आलाचे ना की कि यह उनके लोकतांत्रिक अधिकार का उल्लंघन होगा। ऐसी ही घटना 2013 में हुई थी जब सुब्रमण्यम बनाम तमिल नाडु मामले में सुप्रीम कार्टे ने कहा था कि हालांकि मुफ्त वितरण को भ्रष्ट आचरण नहीं कहा जा सकता है, लेकिन पार्टियों को अपने वादों के पीछे का तर्क बताना होगा और उन्हें वही वादे करने का आदेश दिया जिन्हें पूरा किया जा सके। लेकिन, इस बार यह मुद्दा प्रधानमंत्री ने उठाया। इसने आवश्यक कल्याणकारी सेवाओं और मुफ्त वस्तुओ के रूप में सार्वजनिक धन की बर्बादी के बीच अंतर पर एक नई बहस को जन्म दिया। (साहू, घोष, चैरसिया, 2022) हमारे विचार में, हमारे माननीय प्रधान मंत्री द्वारा उठाई गई यह बहस केवल सार्वजनिक धन के विवेकपूर्ण उपयागे तक सीमित नहीं है। यह हमारे समाज के कमजोर वर्गों के सशक्तिकरण के माध्यम से लाके तंत्र को मजबूत करने के बारे में एक प्रासंगिक सवाल भी उठाता है। समय का सवाल यह है कि क्या केवल मुफ्त वस्तुओं के वितरण से इन वर्गों को सार्थक तरीके से मदद मिलेगी या हमारे समाज से संरचनात्मक असमानताओं को कम करके इन वर्गों का सशक्तिकरण संभव है? क्या ये मुफ्त उपहार हमारे लाके तंत्र को मजबूत करते हैं यालंबे समय में इसे कमजोर कर देंगे ?
Author :
पकंज लखेरा : सहायक प्रोफेसर, राजनीति शास्त्र विभाग, स्वामी श्रदानन्द काॅलेज दिल्ली, विश्वविद्यालय दिल्ली।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.2
Price: 251
भारतीय कानून का व्याख्यात्मक अध्ययन एवं अवलोकन
By: चन्दन कुमार
Page No : 38-51
Abstract
इस आलेख में कानून क्या है? प्राचीन काल से लेकर अब तक के कानून के निर्माण एवं व्याख्याऔ पर चर्चा की गई है। काननू शब्द से अभिप्राय किसी देश या राज्य का अधिकारिक नियम से है जो दर्शाता है कि लोग क्या करे क्या न करे? इस संदर्भ में पशिचम और पूर्व के कानून की अवधारणाओं एवं व्याख्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है। इस लेख का मुख्य प्रश्न यह है कि भारत के संदर्भ में काननू का प्राचीन काल से आधुनिक काल तक क्या स्वरूप रहा है और कैसे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थि क परिवर्तन का कानून के निर्माण एवं स्वरूप पर प्रभाव पड़ा है। प्राचीन काल की परम्परा और प्रथा अब नियम कानून के रूप में परिवर्तित होते जा रहे है। एवं इसकी व्याख्या में न्यायपालिका और न्यायाधीशो की भूि मका अहम हा गई है।
Author :
चन्दन कुमार : सहायक प्राध्यापक, दयाल सिंह संध्या कॉलेज, राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.3
Price: 251
प्रधानमन्त्राी नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में भारतीय संघवाद का परिद्रिश्य
By: पंकज कुमार सिंह , विजय शंकर चैधरी
Page No : 52-70
Abstract
भारतीय संघीय संरचना विश्व का एक विशिष्ट संघीय प्रतिरूप है। भारतीय संविधान में यद्यपि शाब्दिक तौर पर भारतीय गणराज्य को संघीय घाेि षत नहीं किया गया है तथापि राज्य को पर्याप्त संवैधानिक शक्तियाँ दी गइ र्हैं। संविधान के शब्दों की तुलना में भारतीय राजनीति की गतिशीलता ने भारतीय संघीय प्रणाली के कार्यकरण को वास्तव में निर्धारित एवं निरूपित किया है। एकदलीय प्रभुत्व प्रणाली के दौर में जहाँ केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल दिखाई देती है वही गठबंधन सरकारों के दौर में राज्यों के पक्ष में शक्तियों का संतुलन अपेक्षाकृत ज्यादा दृष्टिगत होता है। इस अध्ययन में यह विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है कि 30 वर्षों की गठबंधन राजनीति के बाद 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेत्त्रव में एक दल की बहुमत प्राप्त सरकार आई हालाँकि इसे अन्य दलों का समर्थन प्राप्त था, इस एकदलीय प्रभुत्व प्रणाली ने कैसे भारतीय संघीय संरचना एवं कार्यकरण को परिवर्तित किया है और भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को कैसे और किस रूप में प्रभावित किया है ?
Authors :
डॉ. पंकज कुमार सिंह : सहायक प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी (बिहार)।
विजय शकंर चैधरी : शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.4
Price: 251
संसदीय लोकतंत्रा एवं विपक्ष : एक सैद्धांतिक उपागम
By: जया ओझा
Page No : 71-86
Abstract
समकालीन समय में संसद एक बहुआयामी संस्था के रूप में परिलक्षित होती है। केवल भारत में ही नहीं, अपितु संसदीय राजनीतिक व्यवस्था वाले अन्य देशो में भी यही स्थिति है। संसद के बहुत से कृत्य हैं, परन्तु सबसे महत्वपूर्ण कार्य जनता का प्रतिनिधित्व करना तथा देश के लिए सरकार का गठन करना है। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में विपक्ष के अस्तित्व का अत्यंत महत्व है तथा यह स्वयं लोकतंत्र का सर्वाधिक विशिष्ट गुण है। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत वाद, विमर्श तथा विमति की व्यवस्था अंतर्निहित होती है, जिसमें संवाद के लिए निरंतर अवसर एवं अनुकूलता बनी रहती हैं । एक गाँव की पंचायत से लेकर संसद तक सभी संस्थाएँ संवाद तथा विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न होती है।अतएव संसदीय लाके तंत्र में एक स्थिर तथा सामथ्र्यशील विरोधी पक्ष उतना ही आवश्यक है, जितनी कि एक स्थिर सरकार। विपक्ष के द्वारा ही संसदीय लोकतंत्र में विचार-विमर्श, वाद, विवाद तथा संवाद संभव होता है। यद्यपि यह देखा गया है कि संसदीय प्रणाली के अंतर्गत किसी भी प्रकार की दलीय प्रणाली व्याप्त हो परन्तु वहाँ विपक्ष सदैव मह्त्वपूर्व रहा है। ए॰ एल॰ लावेल के अनुसार “किसी भी दलीय प्रणाली की सफलता विपक्ष की वैधानिक मान्यता पर आधारित होती है”।प्रस्तुत आलेख संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की उत्पत्ति, उपस्थिति एवं उसकी उपादेयता के सैद्धांतक दृष्टिकोढ़ पर
आधारित है। इसके अतिरिक्त यह विभिन्न दलीय प्रणालियों में भी विपक्ष के विविध स्वरूपों का विश्लेषण प्रसतुत करता है।
Author :
जया ओझा : पीएचडी शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.5
Price: 251
वन संसाधन, श्रेणीकरण और विशेष रूप से कमजोर जनजाति समूह (पीवीटीजी)
By: कमल नयन चौबे
Page No : 87-103
Abstract
श्रेणीकरण या कैटेगराइजेशन आधुनिक समय की महत्त्वपूर्ण परिघटना है। भारत में भी जनगणना के साथ जनसंख्या को विभिन्न श्रेणियों में बाँटने की प्रक्रिया ज्यादा व्यवस्थित रूप से आरंभ हुई। अमूमन यह माना जाता है कि श्रेणीकरण से राज्य को विभिन्न समूहों के बारे में कल्याणकारी नीतियाँ बनाने में आसानी होती है। बहुत से समूह खुद को गाले बंद करने और संसाधनों पर अपना हक जताने के लिए इन श्रेणियों का उपयोग करते रहे हैं। लेकिन यह भी माना जाता है कि जनसंख्या का श्रेणीकरण राज्य को विभिन्न समूहों का नियंत्रण करने में सहायता उपलब्ध कराता है। प्रस्तुत आलेख भारत के संबसे वंचित समूहों में से एक पीवीटीजी (पार्टिकुलरली वलनरबे ल ट्राइबल ग्रुप्स या विशेष रूप से कमजारे जनजाति समूह) समूह की संरचना तथा इसके अंतर्गत आने वाली जनजातियों के जीविका और पहचान की सुरक्षा के लिए जद्दोजहद और इस संदर्भ में राज्य की भूमिका की पड़ताल करता है। डोंगरिया कोंध आदिवासियों के नियमगिरी संघर्ष के वृतातं के माध्यम से इस आलेख में इन समूहों के संघर्ष में कानून, नागरिक समाज और राज्य की भूमिका की पड़ताल की गयी है। आलेख यह तर्क देता है कि पीवीटीजी समूहों की भलाई के लिए बहुस्तरीय काम करने की आवश्यकता है, किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अपने जीविका और सांस्कृतिक पहचान को कायम रखने की उनकी स्वायत्तता को मान्यता दी जाए, और इसकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।
Author :
कमल नयन चौबे : लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह काॅलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.6
Price: 251
स्थानिक राजनय, लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण एवं लोकप्रशासन
By: मीना रानी
Page No : 104-115
Abstract
राजनय या कूटनीति का स्थानीयकरण कोई नई राजनीतिक अवधारणा नहीं है। इसे पैराडिप्लोमेसी अथवा स्थानिक राजनय कहा जाता है। स्टीफन वोल्फ ने पैराडिप्लोमेसी को ‘उप-राज्य संस्थाओं की उनके महानगरीय राज्य से स्वतंत्र विदेश नीति में उनकी भागीदारी, अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में उनके अपने स्वयं के अंतरराष्ट्रीय हितो की खोज में उनकी विदेश नीति क्षमता‘ के रूप में वर्णित किया है। वोल्फ के लेखन में उप-राज्य संस्थाओं की उभरती नीति क्षमता के रूप में पैराडिप्लामे ेसी का आनंद संधो के राज्यों (या प्रांतों और क्षेत्रों) और स्वायत्त इकाई दोनों द्वारा किया जाता है। दुनिया के अलग-अलग देशों में कूटनीति का यह स्वरूप पिछले दो-तीन दशक में अधिक प्रचलन में आया है। एक लोकतांत्रिक संघीय प्रणाली वाले राष्ट्र के भीतर स्थानीय सरकारों की सक्रियता एवं आर्थिक बदलावों ने कूटनीति के स्थानीयकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। व्यापार एवं निवेश से सम्बंधित आर्थिक कूटनीति में अमेरिका, कनाडा, बेल्जियम, स्पेन, जापान, दक्षिण कोरिया और यहां तक कि चीन एवं रूस जैसे अधिनायकवादी देशो में स्थानिक कूटनीति लोकप्रिय हो चुकी है। इस आलेख के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया गया हैं कि भारत में भी र्कइ राज्य सरकारों ने पैराडिप्लोमेसी के माध्यम से देश की विदेश नीति को प्रभावित करने के साथ-साथ अपने लिए आर्थि क अवसरों में वृद्धि की है । स्थानिक राजनय से लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण को गति मिलती है जिसका प्रभाव लाके प्रशासन की पद्धतियों पर पड़ना स्वाभाविक है।
Author :
मीना रानी : सहायक आचार्य, लाके प्रशासन विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.7
Price: 251
महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी की तर्ज पर शहरी रोजगार गारंटी योजना के लिए राज्यों के द्वारा की जाने वाली पहल
By: बलदेव सिंह नेगी
Page No : 116-131
Abstract
भारत के बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एम.पी.आई.) 2021 के अनुसार 25.01 प्रतिशत आबादी बहुआयामी गरीब है। दूसरी ओर भारत दूनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है जो 2026 तक पांच ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर और 2047 तक 40 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की आकांक्षा रखता है, जब भारत अपनी आजादी के 100 साल पुरे करेगा। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पी.एल.एफ.एस.) के अनुसार, अक्टूबर-दिसंबर, 2022 में शहरी बेराजे गारी दर 7.2 प्रतिशत थी, जो ग्रामीण से अधिक है। बेरोजगारी या अल्प-रोजगार, शहरी क्षेत्रों में काम की आकस्मिक और रुक-रुक कर होने वाली प्रकृति ऋणग्रस्तता का कारण बनती है, जो बदले में गरीबी के संकट को मजबूत करती है। ये संकट काेि वड जैसी राष्ट्रीय आपदा के दौरान अधिक भयानक हो जाते हैं जो शहरी गरीबों और अनौपचारिक क्षेत्रों के श्रमिकों को प्रभावित करता है और कभी-कभी विपरीत प्रवासन का परिणाम होता है। ऐसी स्थिति में राज्य प्रायाेि जत नौकरी की गारंटी ग्रामीण या शहरी किसी भी इलाके के कमजोर श्रमिको के लिए आखिरी उम्मीद बन जाती है। कोविड-19 महामारी केदौरान मजदूरो के सामने रोजी -रोटी की समस्या आई और कुछ राज्यों ने समाधान के तौर पर अर्बन जॉब गारंटी की पहल की थी। वर्त मान शोध पत्र में शहरी गरीबों के लिए शहरी रोजगार गारंटी योजनाएँ बनाने के लिए विभिन्न राज्य सरकारो की पहलों का अध्ययन करने का प्रयास किया गया है। इसके लिए विभिन्न स्तोत्रों की सहारा लिया गया है जिसमें संबंधित राज्य सरकारों की सालाना रिपोर्ट और ऑनलाइन डेटा, विभिन्न संस्थानों के शोध अध्ययन और समाचार पत्रों की रिपार्टे शामिल हैं।
Author :
बलदेव सिंह नेगी : परियोजना अधिकारी एवं संकाय सदस्य, ग्रामीण विकास, अंतःविषय अध्ययन विभाग, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, समरहिल शिमला-171005.
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.8
Price: 251
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के सापेक्ष भारत में विलंबित न्याय और मानवाधिकार की समीक्षा
By: निशांत यादव
Page No : 132-147
Abstract
किसी भी समाज में शांति, सुरक्षा एवं सह-अस्तित्व बनाये रखने के लिए न्याय व्यवस्था का द्रुतगामी होना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है परन्तु यदि भारतीय सन्दर्भ में बात करें तो यहाँ न्याय तक पहुँच बहुत ही जटिल व श्रम साध्य कार्य है। भारत में यदि विचाराधीन कैदियों के परिप्रेक्ष्य में न्याय तक पहुँच या त्वरित न्याय की जाँच-पड़ताल की जाए तो यह दृष्टिगत होता है कि यहाँ स्थिति पहले से ही ऐसी रही है कि मामूली अपराध के लिए भी व्यक्तियों को न्यायालय के आदेश के इंतज़ार में लम्बी अवधि तक विचाराधीन कैदी के रूप में जेलों में रहना पड़ा है। जिन्हे जमानत मिली, उन्हें भी अदालत के सालां-े साल चक्कर काटने पड़े और जो लोग न्याय पाने के लिए अदालत की शरण लेते हैं उन्हें भी न्याय के लिए कई साल तक इंतजार करना पड़ता है। उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था, यदि मुकदमे समय पर खत्म नहीं होते, तो व्यक्ति पर जो अन्याय हुआ है, वह अथाह है । इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2022 के आँकडो से इस हालात को और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। भारत की जेलों में बंद केवल 22 प्रतिशत लागे ही सजायाफ़्ता मुजरिम हैं, 77.10 प्रतिशत बंदी विचाराधीन हैं। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2022 ने यह दावा कर बताया कि साल 2010 के मुक़ाबले 2021 तक विचाराधीन बंदियों की संख्या 2.4 लाख से बढ़कर 4.3 लाख पहुँच चुकी है, यानी करीब दोगुनी हो चुकी है। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय और पुदुचेरी को छोड़कर हर राज्य/केंद्र शासित प्रदेश में विचाराधीन क़ैदी बढ़े। प्रस्तुत लेख विचाराधीन बंदियों की इस समस्या को इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के सापेक्ष रखकर मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश करता है।
Author :
डॉ. निशातं यादव : राजा बलवतं सिंह महाविद्यालय, आगरा में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.9
Price: 251
बालिका शिक्षा और साइकिलः बिहार सरकार की ‘मुख्यमंत्राी बालिका साइकिल योजना’ के प्रभाव का विश्लेषण
By: निशांत कुमार
Page No : 148-162
Abstract
बिहार के पाचं जिलों में किए गए क्षेत्र सर्वेक्षण के आधार पर यह शोध महिला साक्षरता बढ़ाने के लिए बिहार सरकार द्वारा शुरू की गई मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना की भूमिका की जांच करता है। यद्यपि मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना कई ऐसे कारको का ख्याल रखने में बेहद सफल रही है जो स्कूलों में लड़कियों के नामांकन और प्रतिधारण में बाधा थी, लेकिन इसकी कल्पना एवं कार्यान्वयन में कुछ कमियां भी हैं। शोध पत्र यह स्पष्ट करता है कि भविष्य में योजना को और अधिक कुशल और प्रभावी बनाने के लिए इन कमियों को दूर करने की आवश्यकता है अन्यथा इस सुविचारित योजना की सफलता भविष्य में निरर्थक साबित होगी।
Author :
निशांत कुमार : सह प्राध्यापक, राजनीति विज्ञान विभाग, दयाल सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.10
Price: 251
राजस्थान में ग्रामीण व शहरी प्रवास के कारणाो का जेंडर पर आधारित विश्लेषणात्मक अध्ययन
By: शिव कुमार मीणा
Page No : 163-174
Abstract
जब कोई व्यक्ति अपने जन्म या जन्म से भिन्न स्थान पर जनगणना में पंजीकृत होता है तो उसे प्रवासी माना जाता है। प्रवास अनेक कारणों से हो सकता है कुछ लोगो के लिए रोजगार के अवसरो की तलाश या अपने जीवन को बेहतर करने की इच्छा। जबकि, कुछ मजबूरी के चलते तो कुछ अन्य लोगों के लिए अपने निवास स्थान की परिस्थितियाँ प्रवास के लिए विवश कर देती हैं। वर्तमान युग में तीव्र आर्थि क विकास, संचार की सरलता व लोगों के बीच आसान सम्पर्क के कारण लोग अपने जीवन को बेहतर करने हेतु अवसरों की खाजे में आसानी से पलायन कर जाते है। प्रस्तुत लेख में जेण्डर के विशेष संदर्भ में राजस्थान के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रो से तथा राज्यों में होने वाले प्रवास के कारणो का अध्ययन किया गया है। इसके लिए 2011 की जनगणना के द्वितीयक आंकड़ां का अध्ययन किया गया है। विश्लेषण से ज्ञात हुआ की ग्रामीण व शहरी प्रवासियों के अनुपात में मह्त्वपूर्ण अंतर है। यही अंतर जेण्डर के संदर्भ में भी देखने को मिलता है।
Author :
शिव कुमार मीणा : पी.एच.डी. शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.11
Price: 251
भारत में भारतीय संविधान के तहत सुशासन और सतत् विकास
By: लक्ष्मी परेवा
Page No : 175-188
Abstract
हर देश की प्रगति उसके शासन के स्तर पर निभर्र करती है। एक समृद्ध राष्ट्र का निर्माण करना जिसमें निवासियों की भलाई एक सर्वोच्च चिंता है, मजबतू नेतृत्व की आवश्यकता है। मानव इतिहास में विभिन्न बिंदुआं पर स्थापित सुशासन के सिद्धांतो के विरूद्ध मापे जाने पर सरकार की वैधता को संदेह में कहा जा सकता है। यह सुनिश्चित करने में संविधान एक महत्वपूर्ण कारक है कि सरकार सुशासन के सिद्धांतों के अनुसार काम करती है, क्यूंकि यह अधिकांश आधुनिक सरकारों की भूमिका और जिम्मेदारियों को परिभाषित करती है। लेकिन किसी भी तरह का शासन तब तक अच्छा नहीं हो सकता जब तक कि वह विकास को बढ़ावा देने के लिए समय की उभरती जरूरतों के अनुकूल न हो उसी हद तक, आधुनिक युग दुनिया को सतत विकास के एक नए मॉडल की ओर बढ़ता हुआ देखता है, जिसके लिए आव्यशकताओ को अपने पारंपरिक सिद्धांतों के अलावा सुशासन के रूप मं शासन को न्यायोचित ठहराने के लिए नए मापदंडो के रूप में देखा जा सकता है। इसके अलावा, 17 सतत विकास लक्ष्यों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनाया गया और 2030 तक पूरा किया जाना है। इन 17 लक्ष्यां में से लक्ष्य 16 द्वारा सतत विकास को प्राप्त करने में सुशासन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है, जो सुशासन के लिए संस्थानों और प्रक्रियाओं की स्थापना की मांग करता है। सतत् विकास की अवधारणा के उदय के कारण और स्पष्ट बदलाव के आलोक में, यह लेख यह पता लगाने की कोशिश करता है कि क्या भारतीय संविधान सुशासन की खोज मं इन नए विचारो को संबोधित करने के लिए जगह देता है और यदि हां, तो क्या देश की शासन प्रणाली इस तरह के शासन की स्थापना के लिए आवश्यक मापदंडों को बनाए रखने में सफल रही है।
Author :
डाॅ लक्ष्मी परेवा : सहायक आचार्य, लोकप्रशसन विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.12
Price: 251
भारत में सकारात्मक कार्यवाही और आरक्षण
By: अरविन्द कुमार यादव
Page No : 189-224
Abstract
भारत में कई दशकों से सकारात्मक कार्यवाही नीति के तहत समाज के उपेिक्षत वर्गो को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया जाता रहा है। सरकार ने उपेक्षित वर्गों के चहुँमुखी विकास के लिए सामाजिक न्याय के तहत अनेक लक्ष्य निर्धारित किए हैं जिसमें उनके समावेशीकरण करने के लिए अनेक नीतिया प्रमुख हैं। भारतीय समाज के उपेि क्षतों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग, दिव्यांग, महिला और आर्थिक रूप से कमजारे वर्गों के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया है ताकि आरक्षित वर्गों का सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ापन को दूर किया जा सके। संविधान का यह लक्ष्योन्मुख प्रावधान राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। प्रस्तुत शोध-पत्र में आरक्षित समुदायों के ऊपर आरक्षण का सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव को विभिन्न तथ्यां एवं आंकड़ों की सहायता से समीक्षा की गई है।
Author :
अरविन्द कुमार यादव : एसोसिएट पा्र ेफेसर, राजनीतिक विज्ञान विभाग, डाॅ. भीमराव अम्बेडकर महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली।
DOI : https://doi.org/10.32381/LP.2023.15.02.13
Price: 251
पुस्तक समीक्षाः
भारत में राष्ट्रवाद के बिम्ब, प्रो. श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी, एवं सच्चिदानंद मिश्रा, अंकित पब्लिकेशन्स, वर्ष 2018, पृष्ठ, 180 एवं मूल्यः 495
By: ..
Page No : 225-229
Read NowJan- to Mar-2023
सम्पादकीय
सुशासन: सहभागिता, जवाबदेही और पारदर्शिता
By: ..
भारत में संघवाद के बदलते आयाम
By: विजय शकंर चैधरी
Page No : 1-14
Abstract
सारांशः प्रस्तुत आलेख ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भारत में संघवाद के बदलते आयामों का विश्लेषण करता है। संघवाद की उत्पत्ति भारत सरकार अधिनियम,1935 से र्हुइ । संघवाद सरकार का वह रूप है जिसमें शक्ति का विभाजन आंशिक रूप से केंद्र सरकार और राज्य सरकारों अथवा क्षेत्रीय सरकारों के मध्य होता है। संघवाद संवैधानिक तौर पर शक्तिको साझा करता है क्योंकि इसमें स्वशासन तथा साझा शासन की व्यवस्था होती है।आजादी के उपरांत से लेकर अब तक भारतीय संघवाद का स्वरूप बदलता रहा है।भारतीय राजनीति में र्कइ ऐसे परिवर्तन हुए जिसने संघीय प्रणाली को कई स्तरों पर प्रभावित किया है। इसके कारण देश में संघवाद के अलग-अलग चरण देखने को मिलते हैं। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद ‘एकदलीय प्रभुत्व’ के दौरान ‘केंद्रीकृत संघवाद’ था।
राजनीतिक एकल सत्ता और समय की माँग ने एक ऐसे परिस्थिति निर्मित की कि जनता के सामने ध्रुवतारा के रूप में नरेन्द्र मोदी आए और वर्ष 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सौदेबाजी व्यवस्था का वस्तुतः अंत कर दिया। गठबंधन की राजनीति चलती रही लेकिन सौदेबाजी बिल्कुल नियंत्रण में रही। इस सरकार ने अनुच्छेद 356 का कम दुरुपयागे किया। 2014 से लेकर अब तक भारतीय जनता पार्टी ठासे रूप से सत्ता में है। इसके फलस्वरूप केंद्र राज्यों के मुकाबले और मजबूत हो गया। 2014 के बाद पुनः केंद्रीकरण की प्रवृतियाँ मजबूत होने लगी हैं। जीएसटी, नीति आयोग, एनआईए (NIA) एवं कोरोना महामारी के विरूद्ध संघर्ष के कारण केंद्र की महती भूमिका हो गई है।
Author :
विजय शकंर चैधरी : शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार।
Price: 251
भारतीय परिप्रेक्ष्य में उच्च शिक्षा के समक्ष सीखने का अनुकूलतम वातावरणः सन्दर्भ एवं चुनौतियाँ
By: कुमारी रितु सिंह
Page No : 15-24
Abstract
मनुष्य में सीखने की उत्कट प्रवृत्ति उसे सभी सजीवों में विशिष्टतम स्थान प्रदान करती है। सीखना एक जीवन-पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है जिसका संपादन विभिन्न चरणों, प्रक्रियाओं एवं परिस्थितियों में होता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार से संपादित होती है। व्यक्ति के सीखने की व्यवस्थित एवं योजनाबद्ध क्रिया औपचारिक परिवेश एवं वातावरण में संपादित होती है तथा व्यक्ति की अनौपचारिक शिक्षा सीखने के अनौपचारिक परिवेश एवं वातावरण में फलीभूत होती है। सीखने की प्रक्रिया को व्यक्ति औपचारिक रूप से एवं संज्ञानात्मक ढंग से कुछ समूह, संस्थाओं एवं निकायों की सहायता से संपादित करता है। इसमें प्रमुख रूप से विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय तथा अन्य संस्थाएं आती हैं। वहीं अनौपचारिक शिक्षण में परिवार, साथी, समहू , समुदाय, सांस्कृतिक समूह एवं समस्त सामाजिक क्रियाओं- अनुक्रियाऔ को रखा जा सकता है जो संज्ञानात्मक या गैर-संज्ञानात्मक रूप से सीखने की प्रक्रिया को संपादित करती रहती है ।
Author :
कुमारी रितु सिंह : शोधार्थी, (पी.एच.डी.) महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार।
Price: 251
भारत में सकारात्मक कार्यवाही और आरक्षण
By: अरविन्द कुमार यादव
Page No : 25-58
Abstract
भारत में कई दशकों से सकारात्मक कार्र वाई नीति के तहत समाज के उपेक्षित वर्गो को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया जाता रहा है। सरकार ने उपेक्षित वर्गो के चहुँमुखी विकास के लिए सामाजिक न्याय के तहत अनेक लक्ष्य निर्धारित किए है जिसमें उनके समावेशीकरण करने के लिए अनेक नीतियां प्रमुख है। भारतीय समाज के उपेक्षितों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग, दिव्यांग, महिला और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गो के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया है ताकि आरक्षित वर्गों का सामाजिक, आर्थिकं और शैक्षणिक पिछड़ापन को दूर किया जा सके । संविधान का यह लक्ष्योन्मुख प्रावधान राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । प्रस्तुत शोध -पत्र में आरक्षित समुदायों के ऊपर आरक्षण का सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव को विभिन्न तथ्यों एवं की सहायता से समीक्षा की गई है ।
Author :
अरविन्द कुमार यादव : सहआचार्य, राजनीति विज्ञान विभाग, डा0 भीम राव अम्बेडकर महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
Price: 251
भारत में ई-कॉमर्स बनाम भौतिक खुदरा स्टोरः एक तुलनात्मक अध्ययन
By: जगदीप सिंह , ममता कुमारी
Page No : 59-72
Abstract
उपभोक्ताओं का ध्यान पारंपरिक वितरण चैनलों से हटकर ऑनलाइन/ई-कॉमर्स वितरण चैनलों की ओर जा रहा है, जो पारंपरिक और केवल-क्लिक चैनलों का एक मिश्रण है। इंटरनेट विशेष रूप से ई-कॉमर्स ने वाणिज्यिक परिदृश्य को मौलिक रूप से बदल दिया है। ई-कॉमर्स पहले कुछ सेवाओं जैसे एयरलाइन टिकट, ट्रेन टिकट, होटल बुकिंग, ऑनलाइन सेल-फोन रिचार्जिंग आदि तक सीमित था। हाल ही में, ई-कॉमर्स ने खुदरा और किराना क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर प्रवेश किया है। अधिकांश व्यक्ति ऑनलाइन खरीदारी करना पसंद करते हैं क्योंकि वो घर बैठे खरीददारी कर सकते हैं। उत्पाद की गुणवत्ता का प्रभाव सब्जियों, किराना या दोनों के लिए क्रय निर्णयों को प्रभावित करता है। यह भी पता चला है कि स्थानीय दुकानों की तुलना मे इंटरनेट की कीमतें काफी कम है। हालांकि हम स्थानीय कंपनियों के साथ सौदेबाज़ी कर सकते हैं, लेकिन स्थानीय व्यापारियों और इंटरनेट पोर्टलों के बीच कीमतों में काफी असमानता है। ई-कॉमर्स बाजार को व्यापक बनाने के लिए सभी आपूर्तिकर्ताओ और ग्राहकों को एक मंच पर एक साथ लाने का प्रयास करता है। यहां तक कि अमेज़ॉन, फ्लिपकार्ट, ग्रोफर्स और कई अन्य जैसे बड़े निगम स्थानीय किराना डीलरों को अपने वेब पोर्टलो के माध्यम से बेचने के लिए उत्तरोत्तर प्रोत्साहित कर रह हैं; फिर भी, उनमें से कई जागरूकता की कमी और तकनीकी कठिनाइयों के कारण ऐसा करने में असमर्थ हैं। अध्ययन में पाया गया कि ई-कॉमर्स वेबसाइटो पर कीमतें छोटे किराना स्टोर (स्थानीय खुदरा विक्रेताओं) की कीमतों की तुलना में काफी कम है, लेकिन स्थानीय किराना दुकानों मं सौदेबाजी संभव है। छोटी किराना दुकानों और ई-कॉमर्स वेबसाइटो या इंटरनेट पोर्टल के बीच, कीमतों में महत्वपूर्ण अंतर और कटौती होती है।
Author :
जगदीप सिंह : प्रोपराइटर रीकैप कंसल्टेंसी एंड जनरल सप्लाई धोराजी , राजकोट, गुजरात।
ममता कुमारी : के.वी.के जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय, पिपलिया, राजकोट, गुजरात।
Price: 251
भारतीय श्रमिक आंदोलन के समक्ष चुनौतियाँः अतीत से वर्तमान तक
By: डा0 रूणा आनंद
Page No : 73-89
Abstract
श्रमिक आंदोलन का विकास स्वतत्रंता पूर्व ब्रिटिश शासन, भारतीय राजनैतिक विचारधारा एवं विश्व-पटल पर होने वाले श्रमिक आंदोलनो या परिवर्तनों से प्रभावित था। कालांतर में, विभिन्न प्रकार की समस्याओं के निराकरण के लिए समय-समय पर श्रमिक आंदोलनो के द्वारा, राज्य की ओर से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता रहा है। श्रमिक आंदोलन की सफलता राज्य और पूंजीपतियो द्वारा दी गई प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है। मुख्यतः यह आंदोलन श्रम, पूंजी और सरकार के अन्यान्याश्रित संबंध पर निर्भर है। श्रमिक अपने श्रम से पूंजी निर्माण करते है और उस पूंजी में संतोषजनक भाग मिलने की उम्मीद करते है। राज्य से उन्हें यह अपेक्षा रहती है कि, राज्य उनके मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों कि रक्षा कर संरक्षण और संवर्धन में भी सहयोग करें। राज्य, श्रम और पूंजी के इस संबंध ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से, मुख्य रूप से उदारीकरण और वैश्वीकरण के समय श्रमिक आंदोलन के स्वरूपों और उदेश्यो को अत्याधिक प्रभावित किया है। यह शोध -पत्र सिर्फ औपचारिक श्रमिकों तक सीमित है। जिनका विश्लेषणात्मक एवं विवरणात्मक अध्ययन किया गया है लेकिन वर्तमान में अनौपचारिक श्रमिकों के आंदोलन की बदलती भूमिका के कारण यथायोग्य अति संक्षिप्त में उन पर भी प्रकाश डाला गया है।
Author :
डा0 रूणा आनंद : सहायक आचार्या, अध्यक्ष, राजनीति शास्त्र विभाग, वैशाली महिला कॉलेज, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, बिहार।
Price: 251
गाँधी जी एवं समावेशी विकास का सशक्त आधारः सर्वोदय
By: डा0 संतोष कुमार सिंह
Page No : 90-103
Abstract
समावेशी विकास एक बहुआयामी सिद्धान्त है, जो सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय तथा सम्यक न्याय पर आधारित है। यह सिद्धान्त अवसर की समानता सुनिश्चित करती है, जिससे व्यक्ति अपने कौशल विकास के माध्यम से राष्ट्र में अपनी सशक्त भागीदारी निभा सके। समावेशी विकास में जनसंख्या के सभी वर्गो के लिए बुनियादी सुविधाओं के प्रदान करने के साथ गरिमामयी जीवन जीने के साधनो का विकास तलाश करता है। समावेशी विकास का उद्देश्य एक ऐसे राज्य का निर्माण करता है जिसमें व्यक्ति का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विकास हो सके। समावेशी विकास की संकल्पना गरीबी उन्मूलन के पारम्परिक उद्देश्य से भी ऊपर उठकर समाज के वंचित और पिछडे़ वर्गों का सशक्तिकरण करना है। इस द्रिष्टि से भारत के पास गाँधी जी का अनुकरण करने और उनसे प्रेरणा ग्रहण करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। उन्होंने जो संदेश दिया, उसे बिना अतिरिक्त प्रयास के प्रयोग में लाया जा सकता है। उन्हें बहुत पहले ही इस बात का अहसास हो गया था कि भारत को भविष्य में अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसी वजह से उन्होंने इस देश को हमेशा के लिए महान और गौरवशाली राष्ट्र बनाए रखने के लिए समावेशी विकास का एक माॅडल ‘सर्वोदय‘ प्रस्तुत किया। समावेशी विकास के रूप में गाँधी जी द्वारा वर्णित सर्वोदय ही वह विचार है जो सबके कल्याण को परिभाषित करता है। अथार्थ वेश्विक परिद्र्श्य से इसका आशय लिया जाए तो इस द्रिष्टिकोड से सभी का उदय हो और जिससे सभी का सर्वागीढ विकास हो सके। सर्वोदय सिद्धान्त में प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान रखा जाता है और यह “वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा को सशक्त बनाती है। सही अर्थो में सर्वोदय ही वह सिद्धान्त है जो समावेशी विकास के समस्त आयामों को स्पर्श करता है ।
Author :
डा0 संतोष कुमार सिंह : सहायक आचार्य, अध्यक्ष, राजनीति विज्ञान विभाग, रानी धर्म कुँवर राजकीय महाविद्यालय, दल्लावाला, खानपुर, हरिद्वार, उत्तराखंड।
Price: 251
शिक्षा नीति एवं शिक्षानीति की प्रासगिकता
By: कु0 वीणा कुमारी , डा0 गजानंद सिंह
Page No : 104-112
Abstract
किसी भी समाज या देश की प्रगति में शिक्षा का धुरीय महत्व होता है। भारतीय शिक्षा कामोबेश मेकाॅले की विरासत को आज भी ढो रही है। परन्तु उसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। आज जरूरत है एक आवश्यकता एवं कौशल आधारित शिक्षा की जो भारतीय सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों तथा भारतीय संस्कृति के अनुरूप हो। साथ ही इसमें महिलाओं के मानवाधिकारों की संरक्षा के उत्क्रम भी हो क्योंकि शिक्षा ही व्यक्ति को उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक आदि मूलयो का ज्ञान करवाती है तथा अपने अधिकार व कर्तव्यो का बोध करवाती है जिससे एक सभ्य समाज का निर्माण होता है। इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में प्रस्तुत आलेख प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था एवं महिलाओं के शिक्षा संबंधी अधिकारो के आलोक में वर्तमान शिक्षा नीति 2020 के परीक्षण का एक प्रयास है। प्रस्तुत अनुशीलन से यह उजागर होता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था की तरह महिलाओ के शिक्षा संबंधी अधिकारो के अनुरूप है।
Authors :
कु0 वीणा कुमारी : शोध छात्रा, राजनीति विज्ञान विभाग, जी.बी. काॅलेज, वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार।
डा0 गजानंद सिंह : आचार्य, अध्यक्ष, राजनीति विज्ञान विभाग, वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, रामगढ़ कैमूर , बिहार।
Price: 251
विश्व आधिपत्य की लालसाः यूक्रेन युद्ध में अमेरिका की अवांछनीय भूमिका
By: डा0 पकंज लखेरा
Page No : 113-124
Abstract
रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध समकालीन अंतरराष्ट्रीय राजनीति की प्रमुख घटनाओं में से एक है। यह वैश्विक तनाव पैदा कर रहा है, हथियारो की होड़ बढ़ा रहा है, दुनिया के विभिन्न हिस्सों मे सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर रहा है और यहां तक कि परमाणु संघर्ष में भी समाप्त हो सकता है। आर्थिक रूप से यह न केवल युद्धरत राष्ट्रों के लिए बल्कि पूरे विश्व के लिए एक आपदा होगी। इसके परिणामस्वरूप दुनिया भर में तेल, प्राकृतिक गैस, खाद्यान्न, मोटल और अन्य वस्तुओं की आपूर्ति में कमी आ रही है क्योंकि रूस और यूक्रेन इन सभी वस्तुओं के प्रमुख निर्यातक हैं। बढ़ती मुद्रास्फीति के परिणामस्वरूप दुनिया के विभिन्न हिस्सो में धीमी आर्थिक वृद्धि, बढ़ती गरीबी और बढ़ती भूख हो अवश्यंभावी है। संक्षेप में कहें तो युद्ध विश्व व्यवस्था को काफी हद तक बदल सकता है। यूक्रेन वस्तुतः एक युद्ध का मैदान बन गया है जहाँ दुनिया की प्रमुख शक्तियाँ अपनी सेन्यें तकनीकी शक्ति का प्रदर्श न कर रही हैं। सामान्यतया, नाटो में शामिल होने या न होने के लिए यूक्रेनी संप्रभुता के सवाल पर युद्ध लड़ा जा रहा है। लेकिन, पूरी स्थिति का गहन विश्लेषण एक अलग तस्वीर पेश करता है। एक युद्ध जो रूस यूक्रेन को नाटो में शामिल नहीं होने देने के लिए लड़ रहा है, एक युद्ध जो यूक्रेन अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा के लिए जारी किए हुए है, एक युद्ध जिसे अमेरिका लोकतंत्र के नाम पर प्रायोजित कर रहा है। एक ऐसा युद्ध जहां अमेरिका केवल अपने राष्ट्रीय हितो को देख रहा है और पूरी दुनिया को दांव पर लगा दिया है । यह शोध पत्र वर्तमान स्थिति में अमेरिका की भूि मका का विश्लेषण करना चाहता है। क्या अमेरिका लोकतंत्र और विश्व व्यवस्था को मजबूत करना चाहता है या वह सिर्फ रूस को कमजोर करना चाहता है और युद्ध के बढ़ने के माध्यम से अपना विश्व आधिपत्य जारी रखना चाहता है? क्या अमेरिका के लिए यह बुद्धिमानी होगी कि वह रूस पर अधिक ध्यान केंद्रित करे और उस वास्तविक चुनौती को नजरअंदाज करे जो बढ़ते चीन के रूप में है?
Author :
डा0 पकंज लखेरा : सहआचार्य, राजनीति विज्ञान विभाग, स्वामी श्रद्धानंद काॅलेज दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
Price: 251
हरियाणा पंचायती राज चुनाव एवं निर्वाचन पात्राता शर्तें: एक अध्ययन
By: डा0 सुमन लता , डा0 अजीत कुमार
Page No : 125-138
Abstract
पंचायती राज संस्थाएं हमारे लोकतंत्र की आधार व ग्रामीण विकास की धुरी है। प्राचीन काल से ही परम्परा व भाईचारा पंचायतो का इतिहास रहा है इसी संदर्भ में सामाजिक मान्यताओं, स्थानीय व्यक्तियों तथा सरकार द्वारा इनको शक्तियाँ प्रदान की गई इनके निर्णय न्यायिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक आदि सभी क्षेत्रो में स्वीकार होते हैं इसलिए इनका पालन आत्मीयता से किया जाता है। स्वतंत्रता के पश्चात् केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने तेजी से और योजनाबद्ध ग्रामीण विकास के लिए विभिन्न अधिनियमो एवं कार्यक्रमों को लागू किया है। आवश्यकतानुसार समय-समय पर इन अधिनियमों और कार्यक्रमों को संशॊधित भी किया जाता रहा है ताकि ग्रामीण विकास को गतिमान बनाया जा सके। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए हरियाणा सरकार द्वारा पंचायती राज संस्थाओं में सुधारात्मक प्रयास के रूप में पाचंवें सामान्य पंचायती राज चुनाव में पात्रता शर्तो का निर्धारण किया गया। हरियाणा राज्य में पंचायती राज संस्थओ के वर्ष 1994, 2000, 2005, 2010 और 2016 में चुनाव संपन्न हुए है। प्रस्तुत प्रपत्र मे पंचायती राज संस्थाओ के चुनाव, 2016 में पात्रता शर्तों संबंधी प्रावधानों का विश्लेषण किया गया है। यह विश्लेषण प्राथमिक और द्वितीय स्त्रोतो पर आधारित है। जिसका मुख्य उद्देश्य पंच, सरपचं और ग्रामीण व्यक्तियो से पाचंवें सामान्य पंचायती राज चुनाव में लागू नवीन पात्रता शर्तो संबंधी द्रिष्टीकोड जानना और पंचायती राज संस्थाओं में सुधार सम्बंधित सुझाव देना है।
Authors :
डा0 सुमन लता : सहायक आचार्या, लोक प्रशासन विभाग, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक (हरियाणा)।
डा0 अजीत कुमार : सहायक आचार्य, राजनीति विज्ञान विभाग, गौड़ ब्राह्मण डिग्री कॉलेज,रोहतक (हरियाणा)।
Price: 251
उत्तराखण्ड की आदिम जनजातिः वनराजी (वनरावत/वनरौत) की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति
By: डा0 घनश्याम जोशी , डा0 दीपक पालीवाल
Page No : 139-148
Abstract
उत्तराखण्ड में मुख्यतः पाचं प्रकार का जनजाति समाज रहता है। जिसमें भोटिया,थारू, जौनसारी, बोक्सा और वनरावत या वनराजी हैं। पहले चार प्रकार की जनजाति समाज अपने प्राकृतिक स्वरूप, परम्पराओं और मान्यताओंके साथ आधुनिक समाज मेंरच-बस गया है। किन्तु एक जनजाति समाज जिसे वनरावत या वनराजी नाम से जाना जाता है, समाज की मुख्य धारा से बहुत दूर रहा और अल्पतज्ञात के कारण आदिम जनजाति की श्रेणी में बना रहा्। इस शोध-पत्र के माध्यम से आदिम जनजाति, वनरावत का समाज की मुख्य धारा में जुड़ने और इससे उनके सामाजिक और राजनीतिक स्थिति में आए बदलावो का अध्ययन करना है। यह जनजाति उत्तराखण्ड की अन्य जनजातियों से इस मामले में भिन्न है। इनकी जनसंख्या कुछ सैकड़ों में ही बची है और इनके विलुप्त होने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है।
Authors :
डा0 घनश्याम जोशी : सहायक प्राध्यापक, लोक प्रशासन विभाग, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, राजकीय महाविद्यालय, दल्लावाला, खानपुर, हरिद्वार, उत्तराखंड ।
डा0 दीपक पालीवाल : सहप्राध्यापक, समाज शास्त्र विभाग, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।
Price: 251
राज्य सरकारों द्वारा लोक सेवा प्रदायगी का अधिकार-राज्य कानूनों का तुलनात्मक अध्ययन तथा संसदीय विधान की आवश्यकता
By: डा0 जोरावर सिंह राणावत
Page No : 149-162
Abstract
सेवाओं की प्रभावी प्रदायगी और सुशासन के लिए सरकारों ने कई प्रयास किए हैं जिनमें समय-समय पर प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन, नागरिक अधिकार पत्र लागू करना, सूचना का अधिकार जैसे अधिनियम बनाना आदि प्रमुख हैं। इसी क्रम में देश में सर्वप्रथम मध्यप्रदेश राज्य ने मध्यप्रदेश लोक सेवाओं के प्रदान का अधिनियम, 2010 पारित कर सुशासन की नई दिशा दिखाई है जिसका अन्य राज्यों ने भी अनुसरण किया है। इसके अतिरिक्त केन्द्र सरकार ने भी नागरिक अधिकार पत्र विधेयक, 2011 प्रस्तुत कर इस दिशा में कदम बढ़ाया है। प्रस्तुत लेख में देश में सुशासन हेतु अब तक किए गए प्रयासों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करते हुए राज्यों द्वारा लाके सेवा प्रदायगी हेतु पारित किए गए अधिनियमो का तुलनात्मक अध्ययन किया गया हैं और केन्द्र द्वारा प्रस्तुत किए गए विधेयक का भी संक्षिप्त विवरण दिया गया है। अन्त में लोक सेवा प्रदायगी के क्षेत्र में भविष्य की संभावनाओं पर प्रकाश डाला गया है।
Author :
डा0 जोरावर सिंह राणावत : सहायक आचार्य, अध्यक्ष, राजनीति शास्त्र विभाग, भीलवाड़ा (राजस्थान), संगम विश्वविद्यालय।
Price: 251
पुस्तक समीक्षाः
हिमांशु राय (2021), पॉलिटिकल थॉट इन इंडिक सिविलाइजेशन, सम्पादक, सेज,नई दिल्ली, पृष्ठ 314, मूल्यः 1,395 रूपये
By: Kalpesh B. Panara
Page No : 163-168
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• वर्तनीः किसी भी वर्तनी के लिए पहली और प्रमुख बात है एकरूपता। एक ही शब्द को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से नहीं लिखा जाना चाहिए। इसमें प्रचलन और तकनीकी सुविधा दोनों का ही ध्यान रखा जाना चाहिए।
• नासिक उच्चारण वाले शब्दों में आधा न् या म् की जगह बिंदी/अनुस्वार का प्रयोग करें। उदाहरणार्थ, संबंध के बजाय संबंध, सम्पूर्ण की जगह संपूर्ण लिखें।
• अनुनासिक उच्चारण वाले शब्दों में चन्द्रबिन्दु का प्रयोग करें। मसलन, वहाँ, आये , जाएंगे, महिलाएं, आदि-आदि। कई बार सिर्फ बिंदी के इस्तेमाल से अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए इसका विशेष ध्यान रखें, उदाहरण के लिए हंस और हँस।
• जहाँ संयुक्ताक्षरों मौजूद हों और प्रचलन में हों वहाँ उन संयुक्ताक्षरों का भरसक प्रयोग करें।
• महत्व और तत्व ही लिखें, महत्व या तत्व नहीं।
• जिस अक्षर के लिए हिंदी वर्णमाला में अलग अक्षर मौजूद हो, उसी अक्षर का प्रयोग करें। उदाहरण के लिए, गए गयी की जगह गए, गई लिखें।
• कई मामलों में दो शब्दों को पढ़ते समय मिलाकर पढ़ा जाता है उन्हें एक शब्द के रूप् में ही लिखें। उदाहरण के लिए, घरवाली, अखबारवाला, सब्जीवाली, गाँववाले, खासकर, इत्यादि।
• पर कई बार दो शब्दों को मिलाकर पढ़ते के बावजूद उन्हें जोड़ने के लिए हाइफन का प्रयोग होता है। खासकर सा या सी और जैसा या जैसी के मामले में। उदाहरण के लिए,एक-सा, बहुत-सी, भारत-जैसा, गांधी-जैसी, इत्यादि।
• अरबी या फारसी से लिए गए शब्दों में जहाँ मूल भाषा में नुक्ते का इस्तेमाल होता है। वहाँ नुक्ता जरूर लगाएं। ध्यान रहें कि क, ख, ग, ज, फ वाले शब्दों में नुक्ते का इस्तेमाल होताहै। मसलन, कलम, कानून, खत, ख्वाब, खैर, गलत, गैर इलरजत, इजाफा, फर्ज, सिर्फ।
•उद्धरणः पाठ के अंदर उद्धृत वाक्यांशों को दोहरे उद्धरण चिह्न (’ ’) के अंदर दें। अगर उद्धृत अंश दो-तीन वाक्यों से ज्यादा लंबा हो तो उसे अलग पैरा में दें। ऐसा उद्धृत पैराग्राफ अलग नजर आए इसके लिए उसके पहले बाद में एक लाइन का स्पेस दें और पूरा पैरा को इंडेंट करें और उसके टाइप साईज को छोटा रखें। उद्धृत अंश में लेखन की शैली और वर्तनी में कोई तबदीली या सुधार न करें ।
•पादटिप्पणी और हवाला (साईटेशन): सभी पादटिप्प्णियाँ और हवालों (साईटेशन) के लिए मूल पाठ में 1,2,3,4,..... सिलसिलेवार संख्या दे और आलेख के अंत में क्रम में दे। वेबसाईट के मामले में उस तारीख का भी जिक्र करे जब अपने उसे देखा हो। मसलन, पाठ 1, मनोरंजन महंती, 2002, पृष्ठ और हर हवाला के लिए पूरा संदर्भ आलेख के अंत में दें।
•सन्दर्भ: इस सूची में किसी भी संदर्भ का अनुवाद करके न लिखें, अथार्थ संदर्भो को उनकी मूल भाषा में रहने दें। यदि संदर्भ हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं के हो तो पहले हिन्दी वाले संदर्भ लिखें तथा इन्हें हिन्दी वर्णमाला के अनुसार, और बाद में अंग्रेजी वाले संदर्भ को अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार सूचीबद्ध करें ।
•ए.पी.ए. स्टाइल फोलो करें।
•मौलिकताः ध्यान रखें कि आलेख किसी अन्य जगह पहले प्रकाशित नहीं हुआ हो तथा न ही अन्य भाषा में प्रकाशित आलेख का अनुवाद हो। यानी आपका आलेख मौलिक रूप से लिखा गया हो।
•कोशिश होगी कि इसमें शामिल ज्यादातर आलेख मूल रूप से हिंदी में लिखे गए हो । लेखकों से अपेक्षा होगी कि वे दूसरे किसी लेखक के विचारों और रचनाओं का सम्मान करते हुए ऐसे हर उद्धरण के लिए समुचित हवाला/संदर्भ देंगे ।अकादमिक जगत के भीतर बिना हवाला दिए नकल या दूसरों के लेखन और विचारों को अपना बताने (प्लेजियरिज्म) की बढ़ती प्रवृत्ति देखते हुए लेखकों का इस बारे मे विशेष ध्यान देना होगा ।
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